देशी गाय अच्छी या जर्सी?

पिछले दिनों एक प्राकृतिक चिकित्सक से मुलाकात हुई। हर बीमारी पर उनकी सलाह होती कि देशी गाय का दूध और घी खाइए। गाय के दूध और घी के बारे में तो सुना था कि उसमें वसा की मात्रा कम होती है, लिहाजा उसे थोड़ा-बहुत लिया जा सकता है। लेकिन प्राकृतिक चिकित्सक तो हर मर्ज के लिए देशी गाय' का नुस्खा दिए जा रहे थे। यही नहीं वे विदेशी गाय के दूध को नुकसानदेह भी बता रहे थे। यह हमारे लिए नयी बात थी। कुछ धार्मिक समूह भी शुद्ध देशी गाय के उत्पादों पर जोर देते हैं। लेकिन उनकी आवाज़ को साम्प्रदायिक कहकर नकार दिया जाता है। यों अब पशुपालन क्षेत्र में भी कुछ लोग इस मुद्दे पर गौर करने लगे हैं। राष्ट्रीय दुग्ध अनुसन्धान संस्थान, करनाल ने भी इस संबंध में कुछ अध्ययन किए हैं, जिनसे पता चलता है कि जर्सी गाय की तुलना में देसी गाय का दूध, घी और गोमूत्र कहीं अधिक लाभकारी है। लेकिन आम जनता के सामने भ्रम बना हुआ है। आधिकारिक तौर पर कोई इस पर बोलने को तैयार नहीं दिखता।



हाल के वर्षों में देश-विदेश में इस मसले पर कई अध्ययन हुए हैं, जिनसे पता चलता है कि गाय की दो विदेशी नस्लें हैं- जर्सी और होल्स्टीन। ये मात्रा में दूध भले ही ज्यादा देती हैं, पर वास्तव में इनके उत्पाद फायदे के बजाय नुकसानदेह ज्यादा हैं। कई अध्ययन तो इन्हें गाय मानने तक को तैयार नहीं हैं। यह अपने मूल रूप में यूरोप का उरूस नामक जंगली जानवर था, जिसका यूरोपीय लोग शिकार किया करते थे। चूंकि जंगली जानवर होने के नाते शिकार करना मुश्किल होता था, इसलिए कई जानवरों के साथ इसका प्रजनन करवाया गया। अंत में देशी गाय के साथ प्रजनन के बाद जर्सी प्रजाति का विकास हुआ।


पर क्या वास्तव में उसका दूध भी उतना ही फायदेमंद है? अध्ययन बताते हैं- नहीं। यूरोप में इनके दूध को सीधे- सीधे पीने योग्य नहीं समझा जाता है। यानी ट्रीट करने के बाद ही बाजार में भेजा जाता है। इसके दूध में कैसोमोफन नामक एक रसायन पाया जाता है, जो एक तरह का धीमा जहर है। इससे उच्च रक्तचाप सहित मन की कई बीमारियाँ होने का खतरा रहता है। इसकी एक वजह यह भी है कि भारत में क्रॉस ब्रीडिंग यानी संकरण की प्रक्रिया भी अवैज्ञानिक और असंतुलित है। हमारे किसान और पशुपालक इसके नुकसानों के प्रति बिलकुल भी जागरूक नहीं हैं। उन्हें दूध की अधिक मात्रा के सब्जबाग ही दिखाए जाते हैं। इसलिए देश भर में बड़ी तेजी के साथ गाय की देशी नस्लें ख़त्म हो रही हैं। वर्ष 2012 में हुई पशुगणना के अनुसार उससे पहले के पाँच वर्षों में देशी गाय की आबादी में 32 प्रतिशत की गिरावट दर्ज हुई है, जबकि विदेशी नस्ल की गाय की आबादी में 37 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यही हाल रहा तो अगले दस वर्षों में भारतीय देशी गाय विलुप्त हो जाएगी।


पशुविज्ञानियों का कहना है कि यदि दूध का उत्पादन ही बढ़ाना है, तो ज्यादा दूध देनेवाली भारतीय नस्ल की गायों से संकरण करवाया जाये। इनमें पंजाब की साहिवाल, गुजरात की गिर और राजस्थान की थारपारकर प्रमुख नस्लें हैं। लेकिन अपने पैरों पर कुठाराघात करनेवाले भारतीय नीति-नियोजकों को केवल विदेशी में ही अच्छाइयाँ दिखाई पड़ती हैं। सुना है कि सरकार संकरण को मानक बनाने के लिए कानून बनाने की सोच रही है। उसे तत्काल इसे अंजाम देना चाहिए। समय आ गया है कि हम अपनी पिछली पीढ़ी की गलतियों को सुधारें और अपनी देशी गाय को विलोपन से बचायें। दूध को अमृत समझनेवाले देश को इस तरह छला न जाए।


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