गोरक्षा : मेरी व्यथा

जीवन में इतना सोचने का समय पहली ही बार मिला। नहीं तो बाल्यकाल से अब तक मेरा सम्पूर्ण जीवन संघर्षमय ही व्यतीत हुआ। जिस बात की भी धुन लग जाय, उसी के पीछे हाथ धोकर पड़ जाना- यही मेरा अब तक कार्य रहा है। कभी मैं बिना कुछ किये, बिना व्यस्त रहे बैठा हूँ, ऐसा मुझे स्मरण नहीं आता। कभी ऐसा बीमार भी नहीं पड़ता कि चारपाई पर पड़ना पड़े। अब तो यही धुन थी कि जैसे हो तैसे, गोरक्षा हो, समस्त देश में अविलम्ब कानून से गोरक्षा हो जाय। अब सोचने लगा। मान लो कानून बन भी गया, तो सरकार मन से कानून तो बनावेगी नहीं, दबाव से बनावेगी। उसमें कोई-न-कोई ऐसा छेद रख देगी कि गोहत्या ज्यों-की-त्यों होती रहेगी। संविधान बनते समय राजेन्द्र बाबू तथा टण्डनजी आदि की हार्दिक इच्छा थी कि स्वराजप्राप्ति के पहले दिन ही गोहत्या बन्दी का कानून बन जाए, किन्तु नेहरूजी नहीं माने। संविधान ने गोहत्या बन्दी कानून को स्वीकार किया और हमें आशा थी कि वर्ष-दो वर्ष में देश से सदा के लिये गोहत्या बन्द हो जायगी। सभी यही सोचते थे। मध्यप्रदेश ने स्वराज होने के पश्चात् तुरन्त ही समस्त गोवंश हत्या पर प्रतिबन्ध लगा दिया था।


हमारे कान तो तब खड़े हुए जब नेहरूजी ने कहा- “संविधान की मंशा सम्पूर्ण गोवंश के वध पर प्रतिबन्ध लगाने की नहीं है। वह तो उपयोगी पशुओं का वध रोकता है। उसे भी भारत सरकार नहीं बनायेगी। प्रान्तीय सरकार चाहें तो कानून बना सकती हैं।''



तब हमने यह सोचा कि चलो, प्रत्येक प्रान्त में सत्याग्रह करेंगे। मन्त्रीगण प्रायः सर्वत्र हिंदू हैं। हिंदू कोई कैसा भी क्यों न हो, गोहत्या के विरोध में न जावेगा। यही सोचकर हमने लखनऊ में सत्याग्रह किया और वहाँ भी मध्य प्रान्त की भाँति, बछड़ा, बछड़ी, बैल, सांड़ समस्त गोवंश के वध पर प्रतिबन्ध का कानून पास हो गया, तब तो नेहरूजी बड़े नाराज़ हो गये। तत्कालीन मुख्यमंत्री स्वर्गीय बाबू सम्पूर्णानन्दजी की उन्होंने कानून बनाने पर बड़ी आलोचना की।


जब हमने बिहार में सत्याग्रह किया और वहाँ भी तुरन्त कानून बनाकर मुझे कारावास से मुक्त कर दिया, तो हमने समझा वहाँ भी मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश की भाँति कानून बना होगा। किन्तु हमें पीछे पता चला कि वहाँ भारत सरकार के दबाव से बहुत ही लँगड़ा कानून बना। उसमें भी हत्यारे पर मुकदमा पुलिस न चलावेगी, दूसरे लोग चाहें तो चला सकते हैं।


फिर कसाइयों ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर दी, सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया संविधान के अनुसार गौ, बछड़े- बछड़ियों पर प्रान्तीय सरकारें प्रतिबन्ध लगा सकती हैं, किन्तु अनुपयोगी बैलों और साँड़ों पर प्रतिबन्ध नहीं लगा सकती। उनका वध तो चालू रहेगा। लीजिये साहब, सब गुड़-गोबर हो गया, हमारे यहाँ कहावत है, ‘बिना इच्छा के मार-पीटकर महरे पर बिठा भी दो होकर तो नहीं दिवा लोगे।''


जब वर्तमान सरकार हृदय से गोवध के पक्ष में हैं, तो कानून बन जाने पर भी इसका पालन तो सरकार ही करावेगी। आज शारदा विवाह विधि रहने पर भी करोड़ों छोटी अवस्था के लड़के-लड़कियों के खुल्लम- खुल्ला विवाह हो रहे हैं। सरकार न चाहेगी, वह उदासीन बनी रहेगी, तो केवल कानून बनने से भी हमारा प्रयोजन तो सिद्ध न होगा।


रही जनता की बात। आज से 25-30 वर्ष पूर्व तो एक भी हिंदू ऐसा नही था जो वध का समर्थन कर सके। एक बार किसी ने पं. मोतीलाल नेहरूजी से पूछा था- “आप मांस तो खाते ही हैं। गोमांस खाने में क्या हानि, क्या आप भी गोमांस खा सकते हैं?''


उन्होंने उत्तर दिया था- “मैं गोमांस तो खा नहीं सकता। हाँ जो गोमांस खाते हैं, उनके मांस को खा सकता हूँ।''


इस उत्तर में कितनी वेदना है, गौ के प्रति कितना अटूट आदर है। मेरे सामने ही संसारभर का एक भी हिंदू ऐसा नहीं था जो गोमांस से घृणा न करता हो। किसी ने कह दिया- “पं. जवाहरलाल नेहरू विदेशों में गोमांस खाते हैं। इस बात का हमारे किसी कार्यकर्ता ने सार्वजनिक सभा में उल्लेख कर दिया। जब हमारे गोहत्या निरोध समिति का शिष्टमण्डल प्रयाग के आनन्द भवन में पंजवाहरलाल नेहरूजी से मिलने गया, तब उन्होंने छूटते ही यह बात कही कि आपलोग तो इस बात का प्रचार करते हैं कि मैं मांस खाता हूँ।''


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