गोविद्या एक महत्त्वपूर्ण ज्ञानानुशासन

गोधन भारतीय कषि का मूलाधार JIIरहा है। ऋग्वेद से लेकर ब्राह्मण, रहा है। ऋग्वेद से लेकर ब्राह्मण, "आरण्यक, उपनिषद्, महाकाव्य और पुराणादि आदि ग्रंथों में गोधन की प्रचुर महिमा मिलती है, इसके पीछे मुख्य उद्देश्य यह है कि गोधन की सुरक्षा, संरक्षा और र संवर्धन का भाव बना रहे। भारतीय जनजीवन के मानस पटल में पैठा हुआ यह चिरस्थायी भाव है कि गोधन की हरदृष्टि से सुरक्षा हो। हमारी संस्कृति में आठ मंगल माने गए हैं- विप्र, गौ, अग्नि, स्वर्ण, घृत, सूर्य, जल और राजा। इनका नित्यदर्शन, नमस्कार और पूजन करना चाहिए, इनको अपने दाहिने करके गमन करना चाहिए-



लोकेऽस्मिन् मङ्गलान्यष्टौ ब्राह्मणौ गौर्हताशनः । हिरण्यं सर्पिरादित्य आपो राजा तथाष्टमः॥ एतानि सततं पश्येन्नमस्येदर्चयेच्च तान्। प्रदक्षिणं च कुर्वीत तथाह्यायुर्न हीयते॥


(नारदीयमनुस्मृति 18, 51-52) पराशरस्मृति का मत है कि गायों का सदैव ही दान, पालन-पोषण, संरक्षण करना चाहिए-


गावो देयाः सदा रक्ष्याः पाल्याः पोष्याश्च सर्वदा।


(बृहत्पराशरसंहिता 5, 23)।


गोविद्या के रूप में हमारे यहाँ गोपाल, गोसंरक्षण की जो विचारधारा विद्यमान रही है, उसे लेकर समय-समय पर ग्रन्थों की रचना भी हुई है। इसका संकेत वराहमिहिर कृत 'बृहत्संहिता' में मिलता है और भट्टोत्पल उसको विवेचित करते हुए स्पष्ट करता है कि पराशर ने बृहद्रथ के प्रति सर्वप्रथम गोविद्या का कथन किया था। वराहमिहिर यह संकेत देता है कि पराशर ने गोविद्या को लेकर जो मत दिए, उनको लेकर कृषि से जुड़े समुदायों में गोपालन का स्पष्ट दृष्टिकोण विकसित हुआ है। चूंकि यह विषय बहुत जनोपयोगी है, अतः वह संक्षिप्त रूप में गोधन के शुभाशुभ लक्षणों को संहिता में महत्वपूर्ण मानता है-


पराशरः प्राह बृहद्रथाय गोलक्षणं यत् क्रियते ततोऽयम्। मया समासः शुभलक्षणास्ताः सर्वास्तथा- प्यागमतोऽभिधास्ये॥


(बृहत्संहिता, 61.1)।


पराशर ने गायों के लक्षणों को लिखा है और माना है कि कभी गायों की आँखों में आँसू नहीं हों, न ही कभी __आँखें गंदली या रूखी हो। चूहे के समान आँखवाली, हिलते हुए सींगवाली, चपटे सींगवाली गाय, कृष्ण, लोहित वर्णवाली व गदहे के समान वर्णवाली गाय शुभ नहीं होती। इसका अभिप्राय है कि गायें बहुत शुभ लक्षणोंवाली हों और इसके लिए गायों की प्रजातियों का पूरा ध्यान रखा जाए, क्योंकि संकरता शुभदायी नहीं होती-


साश्रुणी लोचने यासां रूक्षाल्पे च न ताः शुभाः। चलच्चिपिट श्रृंगाश्च करटाः खरसन्निभाः॥


मुनि का मत कि दस, सात या चार दाँतवाली, लम्बे मुंहवाली, बिना सींगवाली, झुकी हुई पीठवाली, छोटी तथा मोटी गरदनवाली, जौ के समान बीच से मोटी, फटे हुए खुरवाली, श्याम रंग की, लंबी जिह्वावाली, बहुत छोटे या बहुत बड़े गुल्फवाली, दुबली, कम अंगवाली या अधिक अंगवाली गायें नहीं होनी चाहिए-


दश सप्त चतुर्दन्त्योऽलम्बवक्त्रा न ताः शुभाः। विषाणवर्जिता ह्रस्वाः पृष्ठमध्याति सन्नताः॥ ह्रस्वस्थूल गला याश्च यवमध्याः शुभा न ताः। भिन्नपादा बृहद्गुल्फा याश्च स्युस्तनुगुल्फकाः॥ श्यावातिदीर्घजिह्वाश्च महत्ककुद संयुताः। याश्चाति कृशदेहाश्च हीना अवयवैश्च याः॥ न ताः शुभप्रदा गावो भर्तुयूथस्य नाशना॥


 (भट्टोत्पलीयविवृत्ति, 61.2-4)।।


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