क्या प्राचीन भारत में गोमांस खाया जाता था?

आजकल राजनेताओं, मीडिया और कुछ तथाकथित विद्वानों द्वारा यह चर्चा जोर-शोर से चलाई रही है। कि 'वेदों में गोहत्या की छूट है' और 'प्राचीन काल में ब्राह्मण एवं ऋषि लोग गोमांस खातेखिलाते थे' । उक्त राजनेताओं, मीडिया और विद्वानों को यह जानना अनिवार्य हो जाता है। कि इस दुष्प्रचार की पृष्ठभित्ति क्या है।


भारतीय संस्कृति और परंपरा किसी भी रूप में पशु-हत्या को मान्यता नहीं देती। किसी भी वैदिक ग्रन्थ, यथा- वेद (मंत्रसंहिता+ब्राह्मण+आरण्यक+उपनिषद्), उपवेद (आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद और स्थापत्यवेद), वेदांग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, छंद और निरुक्त) और उपांग (स्मृतियाँ, दर्शन और पुराणेतिहास) में कहीं एक पंक्ति में भी पशु-हत्या का समर्थन नहीं किया गया है, अपितु पशु-हत्या का घोर प्रतिवाद ही किया गया है। फाहियान ने लिखा है कि भारत में पशु-हत्या नहीं होती है और यहाँ तक कि यहाँ लहसुन-प्याज भी नहीं खाया जाता है।



बंग-क्षेत्र में नास्तिक (चार्वाक अथवा लोकायत) दर्शन (जिसमे मत्स्य, मांस, मदिरा, मुद्रा और मैथुन- ये पञ्च 'म'कार लोकप्रिय हैं) के अनुयायियों ने और तन्त्रप्रधान वज्रयानी बौद्धों ने अर्वाचीन तंत्र ग्रंथों में मांस-भक्षण और अपनी विकृत कामवासना को प्रमुखता से स्थान दिया (तंत्र-सम्बन्धी अर्वाचीन शाक्त ग्रंथों में इसे प्रमुखता से स्थान दिया गया) और वैदिक ग्रंथों में भी मांस-भक्षण-सम्बन्धी मंत्र और श्लोक प्रक्षिप्त करने से बाज नहीं आये। इसका परिणाम यह हुआ कि विकृत किए गए उन ग्रंथों के प्रचार के कुछ समय बाद भोले-भाले हिंदुओं को लगा कि हमारे ग्रंथों में पशु-बलि का आदेश दिया गया है और वे पशु-बलि देने लगे।


लेकिन इसके बाद भी यह जानना आवश्यक है कि हमारे यहाँ गो की हत्या करना सदैव निषिद्ध रहा और उसे ब्रह्महत्या के समान पातक माना गया। यूरोपीय शासनकाल में जब भारतीय सैनिकों को यह पता चला कि कारतूसों में गाय की चर्बी का प्रयोग होता है, तब सन् 1857 में सेना में विद्रोह हो गया। तब अंग्रेजों ने विद्रोह को दबाने के साथ ही यह झूठा प्रचार किया कि प्राचीन भारत के ऋषि-मुनि-ब्राह्मण गोमांस खाते-खिलाते थे। उन्होंने बंगाल के वैष्णव परिवार के एक युवक राजा राजेन्द्रलाल मित्र (1824-1891) को प्रेरित करके उसके माध्यम से 'बीफ इन एंशियंट इण्डिया' शीर्षक लेख लिखवाया, जो ‘जुर्नल ऑफ़ एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल में सन् 1872 में पहली बार प्रकाशित हुआ था।


इसके चार वर्ष बाद कलकत्ता यूनिवर्सिटी द्वारा राजेन्द्रलाल मित्र को ‘डॉक्टर ऑफ लॉ' की उपाधि दी गयी। फिर इसी युवक द्वारा रचित 'इण्डो आर्यन' नामक ग्रन्थ (दो खण्डों में) कलकत्ता की डब्ल्यू. न्यूमेन एण्ड कं. ने सन् 1881 में प्रकाशित किया। इस अंग्रेजी ग्रन्थ के पहले खण्ड के अध्याय 6 के रूप में उपर्युक्त शीर्षक लेख समाविष्ट कर दिया गया।


इसके साथ ही यूरोपीय प्राच्यविदों का एक बड़ा वर्ग वैदिक ग्रंथों में मांस और गोमांस-भक्षण के सन्दर्भ खोजने और उससे भारतीयों को बर्बर सिद्ध करने में लगा। अनेक वैदिक ग्रंथों का ‘अनुवाद' यही सिद्ध करने के लिए किया गया कि भारतीय कितने बर्बर थे। इनका उद्देश्य था–पाणिनि एवं कात्यायन-जैसे महान् भारतीय वैयाकरणों की वास्तविक जानकारी एवं सरल नियमों को छिपाकर मांसभक्षण को प्रमुखता से जनता के सामने रखना और सनातन धर्मशास्त्रों का जहाँ-तहाँ विपरीत एवं गलत अर्थ लगाकर आर्य सभ्यता-संस्कृति को निम्न कोटि का सिद्ध करके बदनाम करना। इसके लिए अल्ब्रेट वेबर और बोतलिंक द्वारा भाषाविज्ञान के मिथ्या एवं काल्पनिक आधार पर एक संस्कृत-कोश संस्कृत वार्टरबुश) की भी रचना की गयी। फ्रेडरिक मैक्समूलर ने तो अपने पत्रों में इसकी घोषणा भी कर डाली कि मेरे द्वारा किया गया वेदों का अनुवाद भारत के इतिहास पर दूरगामी प्रभाव डालेगा। इतिहास अनेक ग्रन्थ इसकी पुष्टि करने लगे कि हिंदू लोग मांस खाते-खिलाते थे और गोमांस भी खाते-खिलाते थे, यज्ञ में मांस और गोमांस की आहुति दी जाती थी। ऐसे कुछ प्रमुख घृणित साहित्यों के नाम दिए जा रहे हैं


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