लाभ-ही-लाभ है। गाय माता से...

विनय की अर्धवार्षिक परीक्षाएँ समाप्त हो चुकी थीं। एक सप्ताह की छुट्टियों में उसने अपने चाचा के गाँव जाने की योजना बनाई थी। पापा से जब उसने अपने मन की बात बताई तो वह तैयार हो गये। अगले दिन पापा ने चाचा को फोन करके विनय को साथ ले जाने के लिए कह दिया।


विनय ने गाँव के बारे में किताबों में तो पढ़ा था, लेकिन गाँव देखा कभी नहीं था। इसलिए उसे था। उसने सुना था कि गाँव में शहरों की तरह शोर नहीं होता है। वहाँ प्रदूषण भी बहुत कम होता है। सुबह-सुबह बागों में ठंढी- ठंढी हवा के साथ चिड़ियों का चहचहाना, खेतों की पगडंडी पर दौड़ लगाते बच्चों के साथ खेलना बहुत भाता है। इन सब बातों की कल्पनामात्र से ही विनय मारे खुशी के उछला जा रहा था।


जब विनय चाचा के साथ बस में बैठकर गाँव जा रहा था, तो रास्ते में बस के साथ भागते खेत, बाग, नदी, नाले, पोखर और भी न जाने क्या-क्या दृश्य देखकर विनय के चेहरे पर मधुरिम-सी मुस्कान फैल गई थी। लगभग दो घंटे बाद विनय गाँव पहुँच गया। सड़क से चाचा का घर थोड़ी दूर पर ही था। इसलिए वह चाचा के साथ पैदल ही चल पड़ा। दूर-दूर तक फैली खेतों की हरियाली ने उसका मन मोह लिया था। वह मन-ही-मन सोच रहा था कि गाँव का जीवन, शहर से कितना अच्छा है। कितनी शांति है यहाँ! शांत वातावरण में चिड़ियों की चीं-चीं उसे बहुत अच्छी लग रही थी।



घर पहुँचकर उसने देखा कि चाचा के घर के बाहर एक कोने में दो गायें बँधी हुई थीं। दरवाजे की दीवारों पर लाल रंग से बहुत ही सुन्दर फूल-पत्तियों की आकृति बनी हुई थी। अन्दर जाने पर उसने देखा कि चाची आंगन के एक कोने में पड़े गोबर से आँगन को लीप रहीं थीं। विनय ने चाची के पास जाकर उनके पैर छुए। विनय को देखकर चाची आंगन लीपना छोड़कर, उसके लिए खाने के लिए कुछ लेने रसोई में चली गयीं। अभी विनय इधर-उधर घर को निहार ही रहा था, अचानक एक बच्चा हाथ में गन्ना पकड़े दौड़ता हुआ आया और विनय को देखने लगा। अभी वह कुछ कहता, इससे पहले ही चाची, रसोई से एक हाथ में गिलास और एक हाथ में तश्तरी में लैया और चने लेकर आईं और पास खड़े बच्चे से बोलीं, देखो लल्ला, भैया आया है। पैर छुओ इसके! चाची की बात सुनकर लल्ल ने आगे बढ़कर उसके पैर छुए। यह देखकर विनय का सीना खुशी से और फूल गया। गाँव का वातावरण ही नहीं, वरन् यहाँ का रहन-सहन और आदर-सत्कार उसे बहुत प्रभावित कर रहा था।


आँगन में पड़ी चारपाई पर बैठकर वह चाची के द्वारा दी गई लैया और गिलास भर दूध का स्वाद लेने लगा। जैसे ही उसने दूध का एक घुट पिया, उसका स्वाद उसे बहुत प्यारा लगा। मोटी मलाई पड़ा, गाढ़ा का दूध तो उसने कभी शहर में पिया ही नहीं था। शहर में तो पानी मिला हुआ पतला दूध ही मिलता था। यह दूध तो उसे अमृत जैसा लग रहा था।


अभी वह लैया चना और दूध का आनन्द ले ही रहा था कि खेत पर से दादा जी आ गये। दादा जी को देखकर विनय ने हाथ में पकड़ी तश्तरी और गिलास को जमीन पर रखा और आगे बढ़कर दादा जी के पैर छू लिये। विनय को देखकर दादा जी बोले, जुग जुग जियो बेटा, बहुत दिन के बाद तुम्हें देखा है। अब तो बहुत बड़ा हो गया है मेरा बचुआ!


दादा जी की लाड़भरी बात सुनकर विनय शर्मा सा गया। दादा जी भी उसके साथ चारपाई पर बैठते हुए बोले, खाओ खाओ, यहाँ गाँव में लैया चना का तो आनन्द ही अलग है। यह तुम्हारे शहर में इतना अच्छा नहीं मिलेगा।


विनय ने अपना सिर हिलाकर दादा जी की हाँ में हाँ मिला दिया। कुछ क्षण बाद दादा जी बोले, ... और इतना पौष्टिक दूध भी शहरों में अब कहाँ मिलता है? शहरों में तो गाय का दूध ही दुर्लभ है। और यदि मिल भी जाए तो शुद्ध मिलना मुश्किल है। यहाँ गाँव में तो अपने घर में एक नहीं दो-दो गायें हैं। जितना मर्जी आए, दूध पियो।


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