लौट चलें गाँवों की ओर

इन दिनों पूरा विश्व जिन अनेक संकटों से जूझ रहा है, उनमें पर्यावरण का संकट भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। यों तो पर्यावरण-संरक्षण की बात करना इन दिनों एक फैशन बन गया है। भारत में काम करनेवाले लाखों गैर-सरकारी संगठन (एन.जी.ओ.) पर्यावरण के लिए ही काम कर रहे हैं; पर उनके प्रयासों के बाद भी यह संकट हल होने की बजाय बढ़ ही रहा है। इसका कारण यह है कि उनमें से लगभग 98 प्रतिशत का उद्देश्य पर्यावरण को बचाना नहीं, अपितु प्रचार और प्रसिद्धि पाकर अपनी जेब भरना है। ऐसे सभी संगठन महानगरों के वातानुकूलित दफ्तरों में बैठकर, पाँच सितारा होटलों में सेमिनार कर तथा वातानुकूलित गाड़ियों में घूमकर लोगों को पर्यावरण का संदेश देते फिरते हैं। सच तो यह है कि ये स्वयं पर्यावरण का विनाश करते हैं।


पर्यावरण की परिभाषा में जल, जंगल, जमीन और खेतीबाड़ी से लेकर मौसम तक सब शामिल है। इसे क्षति पहुँचाने के सबसे बड़े अपराधी दुनिया के वे तथाकथित विकसित देश हैं, जो दुनिया के हर संसाधन को पैसे और ताकत के बल पर अपनी झोली में डाल लेना चाहते हैं। अत्यधिक बिजली और ऊर्जा-संसाधनों का उपयोग कर वे अपने साथ-साथ पूरे विश्व को संकट में डाल रहे हैं। ग्रीन हाउस गैसों का सर्वाधिक उत्सर्जन वही कर रहेहैं, जिससे ओजोन परत लगातार क्षतिग्रस्त हो रही है। विश्वव्यापी गर्मी (ग्लोबल वार्मिंग) का कारण ओजोन का क्षरण ही है।



जहाँ तक भारत की बात है, तो यहाँ पर्यावरण को सर्वाधिक क्षति शहरीकरण के कारण हुई है। आजादी से पूर्व गाँधी जी भारत को एक ग्रामीण देश बनाना चाहते थे। अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' में उन्होंने इस बारे में विस्तार से लिखा है; परन्तु उन्होंने अपना उत्तराधिकारी जिसे बनाया, वह जवाहरलाल नेहरू भारत को शहरों का देश बनाना चाहते थे। वह गाँवों को पिछड़ेपन का प्रतीक मानते थे। उन्हें खेती की बजाय उद्योगों में भारत की उन्नति नज़र आती थी। रूस और इंग्लैंड से प्रभावित नेहरू के प्रधानमंत्री बनने से ग्रामीण विकास की गति अवरुद्ध हो गयी और शहरीकरण बढ़ने लगा। पर्यावरण का संकट इसी का परिणाम है। दुनिया में जितनी ग्रीन हाउस गैसें उत्सर्जित हो रही हैं, उसका 1/5 भाग भारत उत्सर्जित करता है।


पश्चिमी देशों का भारत तथा उस जैसे विकासशील देशों पर यह आरोप है कि पशुओं के गोबर और जुगाली करने से बहुत बड़ी मात्रा में मीथेन गैस निकलती है, जो धरती के बढ़ रहे तापमान का प्रमुख कारण है। इसलिए वे चाहते हैं कि इन पशुओं को क्रमशः समाप्त कर पूरी खेती मशीनों के आधार पर हो; पर सच यह है कि सबसे अधिक (21.3 प्रतिशत) ग्रीन हाउस गैसें विद्युत-निर्माण संयंत्रों से निकलती हैं। इनमें परमाणु ऊर्जा से बननेवाली बिजली का योगदान सर्वाधिक है। परमाणु ऊर्जा-संयंत्रों से होनेवाले महाविनाश का ताजा उदाहरण जापान है। इससे पूर्व सोवियत संघ में 30 अप्रैल, 1986 को हुई चेर्नोबल-दुर्घटना भी बहुत पुरानी नहीं है।


इसके बाद 16.8 प्रतिशत ग्रीन हाउस गैसें औद्योगिक इकाइयों से तथा 14 प्रतिशत परिवहन से उत्पन्न होती हैं। इन दिनों खेती में अन्न के बदले जैविक ईंधन उगाने का फैशन चल निकला है। इस ईंधन से भी 11.3 प्रतिशत ग्रीन हाउस गैसें उत्पन्न हो रही हैं। स्पष्ट है कि वैश्विक गरमी का कारण भारत की परम्परागत कृषिप्रणाली नहीं, अपितु तथाकथित उन्नत देशों की मशीनी पद्धति है।


कंप्यूटर ने मानव के जीवन को आसान बनाया है। अतः इसका विरोध करने का कोई कारण नहीं है; पर यह नहीं भूलना चाहिए कि एक कंप्यूटर चलते समय 200 वाट बिजली की खपत होती है। और कार्यालय खुलने से लेकर बंद होने तक प्रायः सब कंप्यूटर काम न होने पर भी चलते रहते हैं। इनका उपयोग कार्यालय संबंधी काम में कम और निजी ई-मेल, चैटिंग और देश-विदेश में फोनवार्ता आदि में अधिक हो रहा है।


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