राष्ट्रोन्नयनं गोधनसंवर्धनम्

राष्ट्र की उन्नति गोधन के संवर्धन में है। 'गो' शब्द के अनेक अर्थ हैं- "गाय, बैल, धरती और वाणी। तथापि, प्राचीन भारत में गाय और बैल ही इसके प्रचलित अर्थ रहे हैं। गोधन- वाजिधन-गजधन (गाय-घोड़ा-हाथी) की मान्यता विशेष धन-सम्पदा-के रूप में रही है। क्या वैदिक, क्या पौराणिक, क्या रामायण और क्या महाभारत- समस्त प्राचीन साहित्य गौ की महिमा-गरिमा से मण्डित एवं रञ्जित है। उन दिनों गौ सम्पत्ति-समृद्धि की सूचक थी।


महाभारत के अनुशासनपर्व में महर्षि च्यवन ने राजा नहुष से गौ के महत्त्व का निरूपण करते हुए कहा है कि संसार में गौओं के समान दूसरा कोई धन नहीं : गोभिस्तुल्य न पश्यामि धनं किञ्चदिहाच्युत।



पतञ्जलि के अनुसार जिसके पास गौ, अश्व और हिरण्य था, वह धनी समझा जाता था (महाभाष्य, 1.13.9)। परिवारों में गाय-बैल पालने की प्रथा थी। गोपालक परिवार सम्मान की दृष्टि से देखे जाते थे। किसी-किसी परिवार के पास सैकड़ोंसहस्रों गायें होती थीं। गुरुओं को श्रद्धा की प्रतीक गाय भेंट में दी जाती थी।


महाभारत में गौ के महत्त्व को प्रतिपादित करनेवाला एक महत्त्वपूर्ण श्लोक मिलता है :


घृतक्षीर प्रदा गावो घृतयोन्यो घृतोद्भवाः।


घृतनद्यो घृतावर्तास्तामै सन्तु गृहे॥


घृतं मे हृदये नित्यं घृत नाभ्यां प्रतिष्ठितम् ।


घृत सर्वेषु गात्रेषु घृतं मे मनसि स्थितम्॥


गावो ममग्रतो नित्यं गावः पृष्ठत एव च।


गावो मे सर्वतश्चैव गयां मध्ये वसाम्यहम्॥


गाय घी और दूध देनेवाली है। घृत उत्पन्न करनेवाली घृत की नदी और घृत का नँवररूप है। घृत सदा मेरे हृदय में रहे, सारे अंगों और मन में स्थित रहे। गौएँ सदा मेरे मुँह में निवास करें। गायें सदा मेरे आगे-पीछे रहें तथा मैं गायों के बीच में निवास करूं। गाय दुग्ध भुवन की देवी है। भूखों को खिलाती, नंगों को पहनाती और बीमारों को स्वस्थ करती है। गौ की सेवा से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है :


गवां सेवा तु कर्तव्या गृहस्पै पुण्यलिप्सुभि।


गवां सेवापरो मस्तु तस्य श्री वर्धतेऽचिरात्॥


अर्थात्, गोबर-गोमूत्र को खाद से प्रचुर अन्नरूपी लक्ष्मी की प्राप्ति प्रत्यक्ष होती है। वैज्ञानिक प्रणाली से प्राप्त यान्त्रिक खाद की तुलना में गाय-बैल की खाद आज भी अधिक उत्कृष्ट समझी जाती है। आज भी गोबर की खाद को शत-प्रतिशत उपयोग कर सकें, तो यांत्रिक खाद की कमी की पूर्ति सम्भव है। आज से बहुत पूर्व ही भारत ने इसे अपनाया था, तभी तो घी-दूध की नदियाँ प्रवाहित होने का वर्णन मिलता है। गोपालकृष्ण के द्वारा इन्द्र की पूजा की उपेक्षा करके गोवर्धन-पूजन का प्रारम्भ इसी बात का द्योतक है कि कृषिप्रधान भारत के लिए गोचर भूमि और गाय का सर्वाधिक महत्त्व है।


आयुभेद से गाय के अनेक भेद होते थे। बछिया को वत्सतरी, गर्भवती होने योग्य गाय को उपसर्या, प्रथम गर्भा को उपसर, पहली बार ब्याई गाय को गृष्टि, सुतगर्भा को बेहत्, आजकल में ब्यानेवाली को अद्यश्वोना, दूध देती हुई को धेनु, छह मास पहले ब्याई हुई को वष्कयणी तथा ऊँची जाति की पहली ब्याई हुई गाय को महागृष्टि करते थे। प्रति वर्ष जननेवाली गाय तीसरे वर्ष जननेवाली से अच्छी समझी जाती थी। कृषियोग्य भूमि के अनुपात में बैलों की संख्या पर्याप्त थी। नित्यप्रति की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए घी और


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