सभ्यता-संघर्ष, धर्म, राष्ट्रवाद और गौ

दूध हमारे भोजन का प्रमुख अंग है, इसके बिना संपूर्ण भोजन की कल्पना नहीं की जा सकती और इसका बड़ा एवं सुलभ स्रोत गाय है। गाय का दूध स्वास्थ्य के लिए बहुत ही उत्तम माना गया है। गाय का घी आयुर्वेद के अनुसार एक महान् औषधि है। इसके साथ-साथ गोमूत्र को भी अनेकानेक जटिल रोगों की प्रभावी औषधि माना जाता है। गाय एक बहुउपयोगी प्राणी है। गौवंश के रूप में बैल, कृषि-कार्यों में बहुत सफलतापूर्वक काम करते हैं। गौ-वंश का गोबर, देशी खाद का भी मुख्य स्रोत है। सनातन-धर्मावलंबियों को छोड़कर कुछ लोग बीफ-उत्पादन (गोमांस) की दृष्टि से भी गाय को महत्त्व देते हैं। गाय को पालना बहुत आसान होता है; क्योंकि यह बहुत सीधी और समझदार होती है।



उपर्युक्त बातों के इतर सच्चे सनातन- धर्मावलंबियों के लिए गाय एक उपयोगी पशुमात्र नहीं है, बल्कि यह धार्मिक श्रद्धा का विषय एवं मोक्षप्राप्ति का मार्ग है। वह गाय में देव-दर्शन करता है। गाय का सामने आना शुभ लक्षण माना जाता है। गाय का स्पर्श उसके लिए अभिभावकों से आशीर्वाद लेने के समान होता है। दान में गाय देना श्रेष्ठ दान की श्रेणी का माना जाता है। गाय किसी भी स्थिति में वध्य नहीं है। इसको पीटना धर्मविरुद्ध माना जाता है। गोहत्या सच्चे सनातनी के लिए जीने-मरने तथा गहन आक्रोश का विषय है।


यह समझना बिल्कुल भी कठिन नहीं है कि सनातन समाज में गाय ने इतनी प्रतिष्ठा कैसे प्राप्त की। उपर्युक्त गुणों के साथ-साथ श्रीकृष्ण का महान् गोपालक होना, आयुर्वेद चिकित्सा-प्रणाली में गाय के पञ्चगव्य को अतुलनीय औषधि मानना, दूध का अमृततुल्य होना, गाय की रीढ़ में सर्वरोगनाशक नाड़ी होना, गोमूत्र का चिकित्सा के साथ-साथ कीटनाशक के रूप में उपयोग, देवी-देवताओं के वास सहित सैकड़ों पौराणिक प्रसंगों में गाय के शुभ तथा कल्याणकारी वर्णन ने गाय को यह सम्मान प्रदान किया है। गाय के ऐसे ही परोपकारी चरित्र के कारण सनातन समाज में उसे माँ का दर्जा प्राप्त हुआ।


विगत कुछ दशकों से गाय की महिमा- वृद्धि के एक और सहयोगी पक्ष का पौधा अंकुरित-पुष्पित-पल्लवित हुआ है जिसने अपने शैशवकाल में ही बड़े जनमानस पर असर डाला है, और वह है भारत के विभिन्न सनातनी मत-मतांतर तथा वर्ग के लोगों को एक करना। परस्पर मतभिन्नता भारतीय समाज की वैश्विक पहचान है और चारित्रिक लक्षण-सा बन गई है। यह मतभिन्नता इस स्तर तक की है कि परम सत्ता के स्वरूप पर भी सर्वस्वीकार्य सहमति नहीं है; परंपराओं, रीति-रिवाजों तथा धार्मिक अनुष्ठानों की तो बात ही क्या। यहाँ गाय की प्रतिष्ठा इस दृष्टिकोण से रेखांकित की जा सकती है कि उसके स्थान एवं आध्यात्मिक महत्त्व पर सनातनियों में कोई मतभिन्नता शेष नहीं है। परम सत्ता के स्वरूप एवं स्थान पर भेद मिल सकता है, परंतु गाय की स्वीकार्यता पर बिल्कुल नहीं। शायद, कोई भी पंथ गाय का विरोधी बन उसके वर्णनातीत लाभों से वञ्चित नहीं होना चाहता। खैर, मत-मतांतर ही जिनका चारित्रिक लक्षण हो, उनका किसी मुद्दे पर एक हो जाना राष्ट्रवाद के लिए शुभ लक्षण है।


। पौराणिक काल से ही गाय, गंगा, रामायण, गीता आदि विभिन्न धर्मग्रंथ, मन्दिर, आदि सनातनियों की आस्था एवं स्वाभिमान का विषय रहे हैं। परंतु आम जनमानस का सीधा सम्पर्क इनमें से सिर्फ गाय के साथ। ही बन पाया; क्योंकि गंगा और मन्दिर सबको सुलभ न थे तथा रामायण, गीता एवं अन्य धर्मग्रंथ हर कोई नहीं पढ़ सकता था। गाय के ऊपर किसी प्रकार का  अत्याचार होने पर हिंदू समाज एक सुर में उसका प्रतिकार करता था। विदेशी आक्रांताओं के भारत में आगमन के बाद आस्था के इन केंद्रों पर भारी कुठाराघात हुआ। उनके लंबे शासनकाल तथा सामाजिक कूटनीति के कारण भारतीय समाज दिशाविहीन, उद्देश्यविहीन तथा संस्कृतिविमुख होकर आपस में इतना बँट गया कि स्वाधीनताप्राप्ति के बाद तक उसे किसी मुद्दे पर एक होते नहीं देखा गया।


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