समांसमीना गौः

गाय के विशेष नामों का इतिहास बहुत प्राचीन है। महर्षि पाणिनि ने अष्टाध्यायी में इनका उल्लेख किया है। गायें यहाँ के निवासियों की नित्य और चिर सहचरी हैं। प्राचीन काल से ही गायें मनुष्य द्वारा पालित हैं।


जो गाय प्रतिवर्ष ब्याती है, उसे संस्कृत-भाषा में ‘समांसमीना' कहते हैं, लोकभाषा में उसे ‘धेनूपुरही गाय भी कहा जाता है । इस गाय का दूध कभी सूखता नहीं है। पाणिनि ने समांसमीना पद का उल्लेख समांसमां विजयते सूत्र से किया है। अर्थात् समायां समायां-वर्ष वर्ष विजायते प्रसूयते। शास्त्रों में इस प्रकार की गायों को कामधेनु भी कहा गया है।



महर्षि पतञ्जलि ने समांसमीना गौः की प्रशंसा करते हुए कहा है कि गौरियं या समां समां विजायते गोतरेयं या समां समां विजायते स्त्री वत्सा च अर्थात् प्रत्येक वर्ष ब्यानेवाली गाय यदि प्रत्येक बार बछिया ब्याहे तो उसे समांसमीना गोतरा कहते हैं। इसी प्रकार शास्त्रों में गाय के लिए गृष्टि, धेनु, वशा, वेत्त वषकयणी, आदि नामों का उल्लेख मिलता है। जो गाय पहले-पहल ब्याही हो, उसे ‘प्रष्ठौही' भी कहते हैं। लोकभाषा में जिसे ‘पहिलौंठी' कहा जाता है। एक-दो माह की ब्याही गाय ‘धेनु' कहलाती है। ‘वशा' वन्ध्या गाय का बोधक है। ‘वषकयणी' गाय वह है जिसका बछड़ा बड़ा हो गया हो, जिसे दूसरे शब्दों में तरुण-वत्सा गौ भी कहा जाता है।


गायों के लिए इन नामों से जान पड़ता है कि प्राचीन भारत में भारतीय समाज का गायों से कितना घनिष्ठ सम्बन्ध रहा होगा जो उनकी प्रत्येक अवस्था को व्यावहारिक रूप से जानते-पहचानते थे। शुक्लयजुर्वेद में गाय तथा बैलों के विभिन्न नाम उल्लिखित हैं


डेढ़ वर्ष का बछड़ा- यैवि, बछिया- यैवी


दो वर्ष का बछड़ा- दित्यवाट् , बछिया- दित्यौही


\तीन वर्ष का बछड़ा- त्रिवत्स , बछिया- त्रिवत्सा


साढ़े तीन वर्ष का बछड़ा- तुर्यवाट्, बछिया- तुर्योही


चार वर्ष का बछड़ा- पष्ठवाट् , बछिया- पष्ठौही।


आकृति-प्रकृति, गुण-दोष एवं रंग-रूप के आधार पर विभिन्न गोजातियों का विद्वानों ने वर्गीकरण किया है, उन्हीं से उनकी पहचान होती है।


दुग्धप्रधान एकांगी नस्ल- जो गाय खूब दूध देती है, बछड़े खेती के लिए ज्यादा उपयोगी नहीं।


वत्सप्रधान एकांगी नस्ल- जो गाय दूध कम देती है, बछड़े खेती के लिए विशेष उपयोगी।


आगे और-----