शिवधर्मोत्तपुराण में गोधन की महत्ता

शैवधर्मसम्मत शास्त्रों में शिवधर्मपुराण ग्वधर्मसम्मत शास्त्रों में शिवधर्मपुराण और शिवधर्मोत्तरपुराण को और शिवधर्मोत्तरपुराण को उपपुराणों के रूप में आदर प्राप्त है। कतिपय विद्वानों ने इनको शैवशास्त्रों के रूप में भी पारिभाषित किया गया है। इनमें शिवधर्मोत्तर बहुत महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है जिसके लिए ग्रन्थ में ही कहा गया है कि इसे ईश्वर ने कहा है- शिवधर्मोत्तरं नाम शास्त्रं ईश्वरभाषितम्। किन्तु, यह अगस्त्य- स्कन्द के संवाद के रूप में उपलब्ध है। कामिकागम में शिवधर्मोत्तर का प्राचीनतम सन्दर्भ और साक्ष्य मिलता है। डॉ. श्रीकृष्ण ‘जुगनू' ने इसका सम्पादन किया है। इस ग्रन्थ में गोधन की महिमा मिलती है। शिवसाधकों के मठादि में गोशालादि के निर्माण की विधि इसमें आई है। गोधन की महत्ता इसमें उस काल की प्रमुख विशेषता के रूप में दिखाई देती है। पुराणकार गोधन के नष्ट होने पर कृषि के नष्ट होने की बात कहता है, आँधी की प्रबलता पर भी इसी आशंका को व्यक्त करता है



गावोनष्टाः कृषिर्भग्नाः वातश्च प्रबलायते।


आधामि प्राहुणिकाः प्राप्ताः भग्नछिद्रं च मे गृहम्॥


-शिवधर्मोत्तरपुराण, 8.170


इसी ग्रन्थ के बारहवें अध्याय में पातालादि अनेक लोकों का वर्णन मिलता है। इसमें गोलोक की महिमा में उसे सभी कामनाएँ पूरी करनेवाली कहा गया है- गोमातृलोकं परमं सर्वकाम समन्वितम्। (वही, 12.3)। इसी मत के लिए शिवपुराण भी इस ग्रन्थ का ऋणी है- ततः ऊर्ध्वं न लोकाश्च गोलोकस्तत्समीपतः। गोमातरः सुशीलाख्यस्तत्र सन्ति शिवप्रियाः॥ (शिव. उमा. 19.40)। ईश्वर के लोक से भी ऊपर धर्मवृष की स्थिति का वर्णन है और शिवलोक और गोलोक में एकात्म बताया गया है और वहाँ विराजित रहनेवाली गायों के नाम नन्दा, भद्रा, सुरभि, सुशीला और सर्वकामदा बताए गए हैं। (शिवधर्मोत्तर. 12, 89-90)। लिंगपुराण में भी यह विचार हुआ है- शिवभक्ता तु या नन्दा सा मे पापं व्यपोहतु॥ भद्रा भद्रपदा देवी शिवलोके व्यवस्थिा। माता गवां महाभागा सा मे पापं व्यपोहतु॥ सुरभि सर्वतोभद्रा सर्वपापप्रणाशनी। रुद्रपूजारता नित्यं सा मे पापं व्यपोहतु॥ सुशीला शीलसम्पन्ना श्रीप्रदा शिवभाविता। शिवलोके स्थिता नित्यं सा मे  पापं व्यपोहतु॥


(लिङ्ग, पूर्व. 82, 88-91)।


शिवधर्मोत्तरकार का मत है कि गायें सभी की धाय अर्थात् धात्री (दूध पिलानेवाली) हैं और सर्वलोक की माताएँ हैं। ये अपने दूधरूपी अमृतरस से सारे ही जगत् को तृप्त करती हैं। ये सभी शिवस्थान में ईश्वर की इच्छा की अनुगमन करती हुई तपस्या कर रही हैं और इस लोक में रहती हुई सभी के उपकार करने के लिए समाश्रित हैं। ये केवल घास खाती हैं, अरण्य में रहती हैं, पानी पीती हैं और अपरिग्रह व्रतवाली हैं। ये दूध देती हैं, वाहन देती हैं, पवित्र करती हैं। गोरस पिलाती हैं जिससे यह जीवलोक जीवित रहता है- तृणानि खादन्ति वसन्त्यरण्ये पिबन्ति तोयान्यपरिगृहाणि। द्रुह्यन्ति वाह्यन्ति पुनन्ति पापं गवां रसैर्जीवति जीवलोकः॥ (वही 12, 93; तुलनीय चतुर्वर्ग-चिन्तामणौ दानखण्डे, अध्या. 7, पृष्ठ 446)।


ग्रन्थकार का मत है कि उन व्यक्तियों के पाप कैसे रह सकते हैं। जिनके घरों को इन गायों ने अलंकृत कर रखा है और जहाँ पर लगातार छोटे-छोटे बाल-बछड़े होते हैं। गोमय में स्वयं श्री लक्ष्मी का निवास रहता है। जो व्यक्ति जल और घास के द्वारा गायों की भक्ति करता है तथा उनके प्राणों की सुरक्षा के लिए विविध उपाय करता है, वह अन्त में गोलोक को जाता है। जो प्रदेश घास और जल से परिपूर्ण हो और जहाँ गोमाताएँ हों, ऐसे प्रदेश की जो ग्वालबाल सर्वदा सुरक्षा सुनिश्चित करता है, वह शिवलोक को जाता है। जो भगवान् शिव अथवा गुरु के प्रति भक्तिपूर्वक गाय का दान करता है, वह शिवलोक में प्राप्त भोगों का अयुत काल तक उपभोग करता है। जो गोरस (दूध) का भक्तिपूर्वक शिव और शिवयोगियों को नैवेद्य प्रदान करता है, वह लोकों के सभी सुखों का लाभ उठाकर अन्त में शिवलोक को जाता है। इस लोक में सुख के लिए और परलोक में सुख के लिए सर्वस्व गाय ही है। इसलिए बुद्धिमान लोग उसकी सेवा करते हैं।


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