हजारों वर्षों से चली आ रही वंशावली-परम्परा

भा'रत में वंशावली-परम्परा क्यों ‘अनादि मानी जाती है, इसका रहस्य समझना आवश्यक है। विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में प्रमुख भारतीय संस्कृति में सृष्टि अर्थात् विश्व के अस्तित्व का इतिहास जिस प्रकार वर्णित है, वह आश्चर्यजनक भी है और गौरवास्पद भी। चूंकि हमारी संस्कृति ज्ञान की उपासिका रही है, ज्ञान को सर्वोपरि महत्त्व देती है, अतः यह भौतिकवादी नहीं है। विश्व में अस्तित्व और जीवन के उदुविकास के सम्बन्ध में दो प्रकार की अवधारणाएँ प्रचलित हैं- भौतिकवादी अवधारणा जो विज्ञान के साथ जुड़ी है, यह मानती है कि सबसे पहले ‘मैटर' (जड़ पदार्थ) पैदा हुआ, जीवन कंपाउंड आदि से ‘लाइफ' पैदा हुई, तब अमीबा से शुरू होकर प्राणियों की उत्पत्ति हुई। अध्यात्मवादी अवधारणा मानती है। कि ईश्वर ने प्राणियों को ऊपर से भेजा। कुछ धर्मग्रन्थ कहते हैं कि प्रत्येक प्रकार की प्रजातियों के एक-एक नर और मादा ईश्वर ने भेजे, उन्होंने सृष्टि फैलाई।



भारतीय मनीषा सहस्राब्दियों से यह मानती है कि ज्ञान, चैतन्य या ‘स्पिरिट' सबसे पहले पैदा हुई। जब से सृष्टि अस्तित्व में आई, तब से ज्ञान या चैतन्य किसी-न-किसी रूप में उपस्थित रहा। पहले 'फिनोमिना' हुआ, फिर 'नोमिना' बना- यह भारतीय प्रज्ञा नहीं मानती। 'कांशसनेस' बाद में पैदा नहीं हुई, पहले से थी, इसी को प्रतीक रूप में समझाते हुए मनुस्मृति (3.201) कहती है


ऋषिभ्या पितरो जाताः पितृभ्यो देवमानवाः।


देवभ्यस्तु जगत्सर्वं चरं स्थाण्वनुपूर्वशः॥


अर्थात्, पहले ऋषि पैदा हुए, फिर 'पितर' (प्राण), फिर देव और दानव। देवों से यह सारी सृष्टि उपजी, पहले चर-जगत् पैदा हुआ, फिर जड़-जगत्।।


इस उक्ति के जो प्रतीक के रूप में सृष्टि की उत्पत्ति समझानी है, भाँति-भाँति की व्याख्याएँ की गई हैं, किन्तु यह अवधारणा इससे स्पष्ट होती है कि ऋषि अर्थात् ज्ञान (स्पिरिट, कांशसनेस) पहले प्रकट हुए, फिर प्राणी। प्राणियों में देव भी हुए, दानव भी। उन्हीं का तो यह संसार है।


इस मान्यता के आधार पर हमारी संस्कृति ऋषियों को सर्वप्रथम स्थान देती है, सर्वोपरि सम्मान देती है। पितर' उसके बाद आते हैं, फिर अन्य। तभी तो हमारे यहाँ शिक्षाक्रम में आकाश के तारामण्डल का ज्ञान कराते हुए उत्तर दिशा में ध्रुव तारे की जानकारी देकर यह बतलाया जाता है। कि इसके पास ही सप्तार्षियों के तारे हैं। सृष्टि की उत्पत्ति के साथ सर्वप्रथम उद्गत हुई आकाशीय ज्योतियों में ‘ऋषियों की गणना करना इसी का प्रतीक है कि ऋषियों का उद्गम सर्वप्रथम हुआ, यह हम मानते हैं। इसके साथ ही यह मान्यता भी प्रसिद्ध है कि इन्हीं ऋषियों के वंशजों ने ज्ञान का प्रसार किया, इन्हीं ऋषियों ने संसार का विस्तार किया। तभी तो वेदों के रचयिता भी ऋषियों को ही माना जाता है जो ज्ञान के प्रथम सूत्र हैं। यह ज्ञान अनादि है, अतः ऋषियों को रचयिता न मानकर ‘मन्त्रद्रष्टा कहा जाता है, अर्थात् वेद उन्होंने रचे नहीं, 


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