क्षत्रियों-राजपूतों में वंशावलियों का महत्त्व

  विश्वभर  में इतिहास को जानने के अनेक स्रोत रहे हैं, जिनमें प्रमुख हैं- अभिलेख, ताम्रपत्र, पाण्डुलिपियाँ आदि। लेकिन भारत के इतिहास को जानने का एक मुख्य स्रोत और भी है, और वह है विभिन्न राजवंशों की वंशावलियाँ। ऐसा नहीं है कि अन्य देशों में वंशावलियों का महत्त्व नहीं रहा या वहाँ वंश-परंपरा का वर्णन नहीं किया गया, लेकिन जिस विधा एवं परम्परा से भारत में वंशावलियों को सहेजा गया, उन्हें क्रमबद्ध तरीके से पीढ़ी-दर-पीढ़ी लिखा गया, उन्हें संरक्षित किया गया, वह न केवल अनुपम है बल्कि पूरे विश्व में ऐसा कोई दूसरा उदहारण नहीं मिलता। मुख्यतः अन्य देशों में दरबारी इतिहासकार रहे जो तत्कालीन शासकों का महिमापूर्ण इतिहास लिखते रहे, लेकिन उन वंशों का शासन खत्म होने के बाद उनकी बाद की पीढ़ियों के अस्तित्व का पता ही नहीं चलता।



यदि हम क्षत्रिय राजपूतों के इतिहास की बात करें, तो उसकी कई विशेषताएँ रही हैं। शासन किसी परिवार का नहीं, बल्कि वंश का होता था। निःसंदेह उस वंश का मुखिया कोई परिवार ही होता था; लेकिन यदि परिवार में राजा निःसंतान होता था तो ऐसी स्थिति में उसी वंश के किसी बालक से वंशबेल को बढ़ाया जाता था। राजा के सभी सामंत उसी वंशबेल के होते थे और यदि किसी कारण से राजपरिवार का क्षय हो जाता था या किसी अप्रिय स्थिति में राजा के जीवित या मृत अवस्था में किसी और शासक को चुनना होता था, तो वह उन्हीं सामंतों में से चुना जाता था। इसीलिए राजपूतों में वंश का इतिहास मिलता है, जैसे चौहान वंश का इतिहास, परमार वंश का इतिहास, आदि। लेकिन राजपरिवारों का इतिहास उस तरह नहीं मिलता; क्योंकि राजपरिवार उसी वंश की एक इकाई ही थी। उदाहरणस्वरूप यदि आप बुंदेलखण्ड के प्रतापी राजाओं के बारे में जानना चाहते हैं, तो आपको चंदेल-राजवंश और बुंदेला राजवंश का इतिहास पढ़ना होगा। सिर्फ एक राजा या उस राजपरिवार के इतिहास को पढ़कर आप सही जानकारी प्राप्त नहीं कर पायेंगे।


राजपूतों में एक वंशबेल के इतिहास के संरक्षण का एक प्रमुख स्रोत रही हैं : वंशावलियाँ, जिनका लेखन एवं संरक्षण किया गया। सिर्फ राजपरिवारों के ही इतिहास को वंशावलियों के माध्यम से संरक्षित नहीं किया गया, बल्कि उनके सामंतों, उनकी सभी शाखाओं-उपशाखाओं के इतिहास का संरक्षण भी वंशावलियों के माध्यम से किया गया। एक आम राजपूत का इतिहास भी वंशावलियों के माध्यम से सुरक्षित है, जिसका अन्तिम सिरा किसी राजपरिवार से ही जुड़ता है। इसीलिए रामायण-महाभारतकालीन क्षत्रियों के समय प्रयुक्त ‘राजपुत्र' अपभ्रंश होकर ‘राजपूत हो गया। चूंकि इस समाज का प्रत्येक व्यक्ति राजा का ही पूत हैऔर उसका सम्बन्ध किसी-न-किसी रूप में, किसी-न-किसीकाल में किसी राजपरिवार और राजा से ही रहा है। इन संबंधों को खोजने का सबसे सटीक माध्यम वंशावलियाँ हैं, जो बताती हैं कि कितनी पीढ़ी पूर्व एक आम राजपूत के पूर्वज किस क्षेत्र-विशेष के शासक थे।


मध्याकालीन भारतीय इतिहास में यदि क्षत्रिय राजपूतों की बात की जाये, तो इनके इतिहास का प्रमुख स्रोत ही वंशावलियाँ हैं। प्राचीन क्षत्रिय-राजवंशों से चली आ रही ये वंशावलियाँ वर्तमान समय तक की पीढ़ियों की जानकारी सहेजे हुए हैं। राजपूतों में वंशावलियों का अपना विशेष महत्त्व रहा है। इसमें खास बात यह रही है। कि जिन कुलों और परिवारों के राजपाट चले गए, वे भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी इन वंशावलियों को न केवल क्रमबद्ध ढंग से लिखते रहे हैं, बल्कि सहेजते भी रहे हैं। इसीलिए आज भी देश के किसी भी क्षेत्र में रह रहा एक आम राजपूत भी आपको अपना विस्तृत एवं क्रमबद्ध इतिहास पूरे गर्व से बता सकता है। और जिन राजपूतों को अपने इतिहास की सही जानकारी नहीं, वे भी अपने कुल-इतिहास का अन्वेषण कर, अपने परिवार के इतिहास पर शोध कर, उपलब्ध वंशावलियों का अध्ययन कर या फिर उनका अपने कुल के महत्त्वपूर्ण लोगों की वंशावलियों से मिलान कर, अपने कुल की शेष शाखाओं, खापों के निकास और प्रवास की जानकारी प्राप्त कर अपने परिवार के सही इतिहास को जान सकता है।


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