मानव इतिहास की साक्ष्य : पौराणिक वंशावलियाँ

सभ्यताओं के विकास की गाथाओं का सूक्ष्म अध्ययन करें, तो वह । केवल भौतिक उत्थान का सूचक नहीं है। अच्छे भवन और भव्यता से परिपूर्ण जीवन जीने का उपक्रम मात्र नहीं है, अपितु सम्पूर्ण भौतिक उत्थान के मूल में बौद्धिक चिन्तन कार्यरत रहता है। संस्कृति उसी चेतना की निष्पत्ति है जहाँ जीवन को संस्कार के साथ एवं प्राकृतिक नैतिक न्याय से जीवन-यापन करने का बोध प्राप्त होता है। यदि सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय की सूक्ष्मतम गवेषणा करें, तो स्पष्ट होता है कि हमारे संस्कारों में बौद्धिक चिन्तन को ही प्रश्रय दिया गया है, जिसमें नश्वर जीवन को भी उद्देश्यमूलक मानकर समाज-दर्शन का विकास किया गया और इस समाज-दर्शन के अन्तर्गत ही आत्मकल्याण का अध्यात्मिक चिन्तन भी विकसित किया।गया, जिसमें व्यक्ति अपने परम्परागत संस्कार के साथ उन्नत जीवन व्यतीत कर अपना कल्याण कर सके। समाज व राष्ट्र के निर्माण में व्यक्ति एवं उसकी वंश-परम्परा को सनातन-काल से महत्त्वपूर्ण माना गया है। यही भारतीय संस्कृति का गुण है कि सनातन-काल से ही समाज के संगठन में देवत्व एवं ऋषित्व को आदर्श के रूप से स्वीकारा गया है। देवताओं की प्रतिष्ठा में ऋषि-कुलों की परम्परा विकसित होती है। जो एक दिव्य और बौद्धिक संस्कृति को प्रारम्भ करते हैं। भारतीय संस्कृति का जो उद्गम, विकास और उसका आध्यात्मिक एवं नैतिक दर्शन है, वह वंश, राज्य और समाज-व्यवस्था की समष्टि अवधारणा है, जहाँ धर्म, दर्शन और लोक-व्यवहार साथ- साथ गतिमान होती है। हमारी पूजा-पद्धति सम्पूर्ण जीव जगत् की आराधना है, हमारी देवोपासना सृष्टिमण्डल की अवधारणा है, प्रकृति का प्रत्येक रजकण हमारी धार्मिक चेतना में प्रतिबिम्बित होता है। यही कारण है कि हमारी वंश-परम्परा का प्रारम्भ ऋषित्व से होता है। भारतीय समाज का प्रत्येक वंश उस परम्परा का अंश है जो देवत्व से प्रारम्भ होकर ऋषि-कुलों द्वारा पोषित हुआ।



हमारी सनातन संस्कृति में माना गया है। कि इतिहासः पुरावृतं ऋषिभिः परिकीर्यते (बृहद्देवता, 4.46)। वैदिक संस्कृति सनातन संस्कृति है और हमारा इतिहास ऋषियों द्वारा कीर्तित है। इतिहासस्य च वै स पुराणस्य च गाथानां च नाराशंसीनां च प्रियं धाम भवति य एवं वेद॥ (अथर्ववेद, 15.6.9)। चारों वेदों के साथ पुराणशास्त्र, आख्यानशास्त्र और गाथाओं में उत्तम पुरुषों का यशागान और उनकी कुल-कीर्ति का वर्णन प्राचीन काल से होता रहा है।


वायुपुराणकार वंश और कीर्ति से इतिहास की प्रस्तुति को ऋषि परस्पर का प्रवाह मानता है। संस्कृतविद्या के प्रवीण सूत आचार्य ने माना है कि पुराणशास्त्र ब्रह्मवादी ऋषियों की देन है


वंशानां धारणं कार्यं श्रुतानां च महात्मनाम्। इतिहासपुराणेषु दिष्टा ये ब्रह्मवादिभिः॥


-वायुपुराण, 1.32 


ये पुराणशास्त्र ही वे रचनाएँ है जहाँ हमारी सनातन वंश-परम्परा और वंशों का चरित्र वर्णन किया गया है। आधुनिक इतिहासकार इसे गल्पसाहित्य मानते रहे। आज प्रो. आर.सी. हाजरा और पार्जीटर महोदय ने इन्हें भारतीय समाज की वंश-परम्परा का महत्त्वपूर्ण और प्रामाणिक स्रोत माना है। हमारे पुराणों में वर्णित वंशावलियों को आज विश्व-स्तर पर मान्यता प्राप्त होने लगी है।