मजबूत रिश्ते तो मजबूत हम

हमारा अस्तित्व, हमारी पहचान और हमारे सुख हमारे अपनों से ही हैं। परिवार, समाज तथा अपने आसपास के लोगों से मधुर रिश्ते हमें खुशी देते हैं। इसी खुशी को बढ़ाने के लिए हम हमेशा रिश्तों को सहेजने का प्रयत्न करते रहते हैं। परन्तु अब आज के बदलते समय में खुशियाँ देनेवाले यही रिश्ते लोगों को बोझ और दुःखदायी लगने लगे हैं। आपसी मधुरता की जगह कटुता घोलने लगे हैं। भले ही आज जीवन में लोग रिश्तों की मिठास को कम ही महसूस करते हों, लेकिन आपसी रिश्तों का एहसास, इनकी मधुरता व्यक्ति को आनन्दित करती है, पुलकित करती है। यह पूर्णतया सत्य है। आज जानबूझकर व्यक्ति इन सुखद रिश्तों की अवहेलना करता है, क्योंकि रिश्ते लोगों को सीमाओं में बाँधते हैं और वह बँधना नहीं चाहता है। रोक-टोक को सुरक्षा नहीं, रुकावट मानता है। हर व्यक्ति अपनी मर्जी के अनुसार चलना चाहता है, पूरी तरह स्वतंत्र रहना चाहता है। इसीलिए रिश्तों का दायरा दिन-प्रतिदिन संकीर्ण होता जा रहा है। लोगों की सोच-समझ कुछ ऐसी बदल गई हैकि व्यवहार नकली-सा दिखता है। हर व्यक्ति एक दूसरे के सामने ऐसे प्रस्तुत होता है जैसे वह बहुत ही अच्छा, संतुलित व सामञ्जस्यपूर्ण है, वह आपसी रिश्तों को खूब समझता है, घुलता-मिलता है व सभी रिश्तों का सम्मान करता है, पर असलियत में वह ऐसा बिल्कुल भी नहीं होता है। रिश्तों की गरिमा, रिश्तों की मर्यादा का पालन करना अब पिछड़ेपन का सूचक बन गई है। भागती-दौड़ती भौतिकता से भरी ज़िन्दगी में कोई भी पिछड़ना नहीं चाहता और न पिछड़ा कहलाना चाहता है। ऐसे में रिश्तों की आहुति तो होनी ही है, अर्थात् हमारी मजबूती तो खोनी ही है जो निन्दनीय भी हैऔर चिन्तनीय भी।



रिश्तों की इस दुनिया में यदि कोई चोटिल होता है तो वे अपने ही होते हैं और अपनों से ही चोटिल होते हैं। इसलिए रिश्तों को सँवारने की जिम्मेदारी भी अपनों की ही है। सबसे ज्यादा खुद की है। हमारी सबसे बड़ी समस्या है खुद को न परखना। दूसरों की कमियों पर हम कड़ी नज़र रखते हैं, पर खुद पर नहीं। दूसरों की ज़िन्दगी को ऊँचे पैमाने से नापना चाहते हैं और अपनी कमजोरियों के लिए तरह-तरह की सफाई देते हैं। दूसरों के दोषों पर हमारी नज़र जरूरत से ज्यादा तेजी से दौड़ती है, पर अपने साफ चमकनेवाले दोषों को भी अनदेखा कर देते हैं। सामाजिक एवं घरेलू संबंधों में गलतफहमी का और विषमता पैदा होने का एक बड़ा कारण यह भी है। यदि हम खुद की तरह दूसरों के लिए भी नम्र और के रिश्तों को बचाने के लिए समयानुकूल स्वयं में भी बदलाव जरूरी है, क्योंकि कभी-कभी जरूरत से ज्यादा नाराज़गी, उदासी, परेशानी, नकारात्मकता आदि जीवन में रिश्तों की डोर को इस तरह उलझा देती है कि फिर सुलझाना मुश्किल होता है। कभी-कभी असंभव भी हो जाता है।


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