पञ्जीः मैथिलों की पारम्परिक वंशावली

आग्ल-भाषा के अनुसार पञ्जी का अर्थ Register होता है। बोलचाल की भाषा में इसे वंश-परिचय कहते हैं। पञ्जी का संक्षिप्त इतिहास ।


प्राचीन काल से ही पारिवारिक लोग अपने 7 से 10 पीढ़ी (gener ation) तक के पूर्वजों का नाम तथा इनके वैवाहिक सम्बन्ध का लेखा-जोखा याद रखते थे। जनसंख्या में वृद्धि के कारण इसे कंठस्थ रखना सम्भव नहीं होता था, तब इसे पञ्जी में लिखकर रखने लगे जिसे समूह लेख नाम दिया गया। तब से अब तक यह कार्य अनवरत चल रहा है।



तेरहवीं शताब्दी में तत्कालीन कर्णाटवंशीय राजा हरिसिंहदेव ने इस कार्य को लिपिबद्ध करने का भार परूआ मूल के रघुनन्दन राय को सौंपा। आजकल अन्य मूल के लोग भी इस कार्य को करते हैं।


पञ्जी का स्वरूप


‘अमुक सुता' अमुक सं अमुक, सुत अमुक ‘दौ अमुक सुत अमुक दु दौ। अधिकांश पञ्जीकारों के हस्तलेख इसी प्रकार लिपिबद्ध हैं। यह संस्कृत में है। परन्तु कहीं-कहीं इससे भिन्न स्वरूप का हस्तलेख मिलता है। 


‘सुता' का प्रयोग एक या एक से अधिक बालक के लिए किया गया है। दौ' का अर्थ दौहित्र (अर्थात् नाना के लिए) तथा दु दौ द्वितीय दौहित्र (अर्थात् माय के नाना) के लिए हुआ है। किसी लड़का या लड़की के पिता का एक से अधिक शादी (पत्नी) होने पर अर्थात् दूसरी शादी के लिए 'अपरा' शब्द का व्यवहार किया गया है।


पञ्जी के प्रकार


मुख्यतः पञ्जी के तीन प्रकार की जानकारी मिली है- 1. मूल पञ्जी, 2. शाखा पञ्जी और 3. दूषण पञ्जी।


श्री रमानाथ झा अपनी पुस्तक 'मैथिल ब्राह्मणों की पञ्जी व्यवस्था में लिखते हैं कि प्रारम्भ में ब्राह्मण और कर्ण-कायस्थ के साथ अन्य वर्गों का भी पञ्जी-लेखन प्रारम्भ हुआ। किन्तु कालक्रम में अन्य समाज इसे छोड़ते गये। ब्राह्मण और कर्ण-कायस्थ के पी अभी तक प्राप्य हैं, परन्तु यदि मैथिल समाज ने इस पर ध्यान नहीं दिया, तो एक- एक पीढ़ी बीतते-बीतते यह मिलना मुश्किल हो जायगा।


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