राजावली और वंशानुकीर्तन

इतिहास में राजाओं-महाराजाओं की कीर्ति का गान अभिलेखों में तो विशेष रूप से मिलता ही है, ताम्रपत्रों में भी प्राप्त होता है। अभिलेखों का महत्त्व इसलिए है कि उनमें राजाओं की वंश- परम्परा का प्रामाणिक विवरण मिलता है। जिस किसी राजा ने ताम्रपत्र जारी किया हो, वह अपने पूर्ववर्ती राजाओं का उल्लेख करता है और क्रमशः पादानुध्यात या उनके पदस्थ राजागणों का उल्लेख करता हुआ अपने तक आता है। हर्षवर्धन के काल में यह परम्परा पर्याप्त विकसित रूप में मिलती है, ऐसे में यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि इससे पूर्व ही राजाओं के क्रमशः नामोल्लेख की परम्परा भारतीय अभिलेखों में स्थान प्राप्त कर चुकी थी। यह वंश-परम्परा के स्मरण का परिचायक भी है। रघुवंश से लेकर परवर्ती काल तक वंशों के वर्णन की एक सुदीर्घ परम्परा शताधिक ग्रंथों के रूप में हमारे यहाँ प्राप्त होती है जो किसी वंश के संबंध में विशेष भारतीय गुणग्राहकता की पोषक व संवाहक है।



वंशः उद्भव और अभिप्राय


वंश से सामान्य आशय है बाँस और बाँस की तरह एक ही स्थान से अनेकानेक अंकुरणों से किसी पौध के नियमित प्रसारण के फलस्वरूप कुल के अर्थ में इस शब्द को स्वीकारा गया है। कोशकार अमरसिंह का मत है कि जिससे पुत्र-पौत्रादिकों की परम्परा का बोध होता है, वह वंश है। अमरसिंह ने इसके पर्याय के रूप में सन्तति, गोत्र, जनन, कुल, अभिजन, अन्वय, अन्ववाय और सन्तान-जैसे पर्याय अमरकोश (2.7.1) में दिए हैं। भरत ने अमरकोश की टीका में स्पष्ट किया है कि पूर्व-पुरुषों से निकलनेवाले या अनुकरणवर्ती सन्तानों का क्रम वंश' नाम से जाना जाता है- वमति उद्गिरति पूर्वपुरुषान् वंशः नाम्नीति शः।


कोशों के अनुसार 'वंश' शब्द पुर्लिंग है और इसकी व्युत्पत्ति और आशय आदि इसी प्रकार बताए गए हैं- वमति उरिति पुरुषान् वन्यते इति वा। टु वम उद्गिरणे इति धातोर्यद्वा वन शब्दे इति धातोर्बाहुलकात् शः। यद्वा, वष्टि उश्यते इति वा। वंशकान्तो + अचू घञ् वा। ततो नुम। (शब्दकल्पद्रुम, भाग चतुर्थ, पृ. 240)।


इस प्रकार पुत्र-पौत्रों की गणना की जाती है। जयादित्य-जैसे भाषाशास्त्री का मत रहा है कि कुल और विद्या से जन्म पानेवाले प्राणियों का एक लक्षण है जो कि सन्तान के अर्थ में लिया जाता है- कुलञ्च विद्यया जन्मना वा प्राणिमामेकलक्षणः सन्तानो वंश। इसी प्रकार सुभू का मत है कि धन या विद्या के ख्यात स्वामियों की धारा वंश होती है- धनेन विद्यया वा ख्यातस्यापत्यधारा वंश इति सुभूः । जटाधर ने वंश के लिए निघन और जाति-जैसे दो शब्दों का प्रयोग किया है।


पूर्व-पुरुषों के पुत्र और पौत्रों की अनेक शाखाओं के पुरुषों के लिए वंश का प्रयोग कालिदास ने विशेष रूप से सूर्य वंश के लिए रघुवंश में किया है जो कि वंशोत्कर्षण कथन के प्रसंग में आया है- क्व? सूर्यप्रभवो वंशः क्व? चाल्प विषया मतिः। तितीर्घदुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम्॥ (रघुवंश, 1.2)। यहाँ प्रभव या उत्पन्न होने वंश को कुल कहा गया है और कुल को जन्म का एक लक्षण कहा है, जिसमें सन्तानों को वंश या वंशवर्ती माना गया है- अस्मिन् सूर्यप्रभवे वंशे कुले। जन्मनैकलक्षणः सन्तानो वंशः। (उक्त टीका 1.4)। भागवतकार ने पुत्र के लिए वंश का प्रयोग किया है- नृपस्य वंशः सुमतिर्भूतज्योतिस्ततो वसुः। (स्कन्ध)


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