वंशावली-लेखन की भारतीय परम्परा और चौहान-वंशावली

प्राचीन भारत में इतिहास के ज्ञान को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। वेद, ब्राह्मण और उपनिषदों में इतिहास के विषयों का उल्लेख किया गया है। मूल पुरुष मनु की संतानों ने सृष्टिक्रम चलाया था। मनुष्य ने पृथिवी पर जहाँ-जहाँ ग्राम, पुर, नगर, दुर्ग आदि की रचना की और अपनी अनुकूलता अनुसार निवास ग्रहण किया, उनका उल्लेख भागवत के तीसरे-चौथे और पाँचवें स्कन्धों में मिलता है। कालान्तर में वर्ण-व्यवस्था अस्तित्व में आयी। जीवों की उत्पत्ति व अस्तित्व के रहस्यों को वेद, पुराण, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषदों आदि के माध्यम से ज्ञात किया जा सकता है। प्राचीन समाज में वंशावली लिखने का कार्य विशेष समाज द्वारा किया जाता था, लेकिन समय के परिवर्तन के साथ यह कला हाशिये पर आ गयी।



राजपूतयुगीन भारतीय इतिहास पर नजर डालें, तो पायेंगे कि राजवंशावलियों के लेखन का कार्य विशेष जाति, समाज व विशेष व्यक्ति द्वारा किया जाता था। राजपूत-युग में चन्दबरदाई द्वारा रचित पृथ्वीराजरासो प्रमुख ग्रन्थ है। प्राचीन जनश्रुतियों के अनुसार राजपूत प्राचीन क्षत्रियों की संतान हैं और वे अपने को सूर्यवंशी या चन्द्रवंशी मानते हैं। प्राचीन ग्रन्थ कुमारपालचरित, वर्णरत्नाकर तथा राजतरंगिणी में भी 36 राजपूत कुलों का उल्लेख मिलता है। इतिहास में सातवीं शताब्दी के मध्य से 12वीं शताब्दी का काल राजपूत काल माना गया है। ऐतिहासिक सामग्री से ज्ञात होता है कि राजवंश लिखित पत्रों, वंश बहियों को सुरक्षित रखते थे। ये बहियाँ कई प्रकार की होती थीं :


। हकीकृत बही


खरीता बही


। हकूमत बही


कमठाना बही


विवाह-सम्बन्धी बही


इन्हीं बहियों से राजवंश के सम्बन्धों का पता चलता है। राजवंशों में इन बहियों का लेखन विशेष जातियों द्वारा किया जाता था। राजस्थानी चारण और भाट, राजपूतों का जन्म अग्निकुण्ड से मानते हैं, इसका प्रमाण पृथ्वीराजरासो में मिलता है। पृथ्वीराजविजय काव्य और शब्द कल्पद्रुम कोश से प्रमाणित होता है कि चौहान (चाहमान) राज्य का प्रमुख भाग सपादलक्ष सांभर था। 


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