वशावली-लेखन भारतीय प्राच्यविद्या का अनिवार्य अंग है। संस्कृत-वाङ्मय में वंशावली-लेखन के अनेक स्रोत दृग्गत होते हैं। वंशावली-लेखन की यह अजस्र धारा हिन्दी- साहित्येतिहास के रीतिकाल में अपने प्रशस्त रूप में दिखायी पड़ती है। यद्यपि रीतिकालीन कवियों का मुख्य हेतु नायक-नायिका-भेद, नखशिख एवं शिखनख-वर्णन, अलंकारशास्त्र की रचना आदि के बल पर तत्कालीन राजदरबारों में अपना कवि-चक्रवर्तित्व स्थापित करना था, तथापि उनके साहित्य में वंशावली-लेखन की क्षीण ही सही, किन्तु एक प्रच्छन्न धारा अक्षिगत होती है। वंशावली-लेखन का उद्देश्य न होते हुए भी कई कई बार अपने आश्रयदाताओं की प्रशस्ति के सन्दर्भ में रीति-कवियों ने बड़े चमत्कारिक ढंग से वंशावली-लेखन का कार्य सम्पादित किया है। रीतिकालीन कवियों के पुरोधा, महाकवि केशवदास की प्रातिभ प्रतिभा के प्रकाश में ही वंशावली-लेखन के माध्यम से काव्येतिहास की परम्परा का प्रवर्तन हुआ था। महाकवि केशवदास ने 'वीरसिंहदेवचरित' और ‘कविप्रिया' में ओरछा के बुन्देला-नरेशों की वंशावली का वर्णन किया है। 'वीरसिंहदेवचरित' संवाद-शैली में लिखित एक बृहत्तर प्रबन्धकाव्य है। द्वितीय प्रकाश में 'दान' और 'लोभ' के संवाद के अन्तर्गत लोभ ने महाराज वीरसिंहदेव की वंशावली बताया है। उसके कथनानुसार भगवान् राम कुश को राज्य देकर जब सदेह बैकुण्ठ चले गये तो उन्हीं के वंश में वीरभद्र काशी के राजा हुए। पुनः वीरभद्र के वीर, वीर के कर्ण और कर्ण के अर्जुनपाल हुए। अर्जुनपाल काशी त्यागकर महौनी चले गये। उनके पुत्र साहनपाल ने गढ़कुण्डार जीता। साहनपाल के पुत्र सहजेन्द्र, सहजेन्द्र के नौनखदेव, उनके पृथ्वीराज, पृथ्वीराज के मेदिनीमल्ल, उनके अर्जुनदेव, अर्जुनदेव के मलखान, मलखान के प्रतापरुद्रदेव हुए। इन्हीं प्रतापरुद्रदेव ने ओरछा नगर बसाया था और इन्होंने ही कृष्णदत्त मिश्र को पौराणिक वृत्ति दी थी
कुसस्थली कुस बैठे जाइ। आसमुद्र पृथिवी को राइ॥
कुस के कुल को एक कुमार। आनि धर्यो कासी-भुवपार॥
देखि रूप गुन सील समाज। ताकहँ पुरजन दीनो राज॥
राजा बीरभद्र गम्भीर। तिनके प्रगटे राजा बीर॥
तिनकें करन नृपति सुत भये। दान पान करन गुन लये॥
तहाँ कर्नतीरथ तिन कर्यो। पूरन पुन्य प्रभावनि भर्यो। तिनकें प्रगटे अर्जुनपाल। अर्जुन सम जनपद-प्रतिपाल॥
रूठि पिता सों कासी तजी। आनि महौनी नगरी भजी॥ तिनके साहनपाल कुमार। जीति लियो तिनि गढ़कुण्डार॥
सहजइन्द्र तिनके गुनग्राम। तिनकें नृप नौनगद्यौ नाम॥
तिनके सुत नृप-कुल सिरताज। प्रगटे पृथु ज्यों पृथ्वीराज॥
तिनके भये मेदिनीमल्ल। राइसेनद्यो पूरनमल्ल॥ तिनके सुत जीते भव भूप। अर्जुनद्यो नृप अर्जुन रूप॥
सकल धर्म तिन धरनी किये। षोडस महादान दिन दिये॥
स्मृति अष्टादस सुने पुरान। चार्यो बेद सुने सुनि दान॥
तिनके सुत भयो परम सुजान। रिपुखण्डत राजा मलखान॥
जब जब जहँ जहँ जूझहिं अरे। भूलि न पाउँ पिछड़े धरे॥
तिनके सुत भो सील समुद्र। नृपति प्रतापरुद्र जनु रुद्र॥
दया दान कोऊन समान। मानहुँ कलपवृक्ष परमान॥
नगर ओड़छो गुन गम्भीर। आनि बसायो धरती धीर॥
कृष्णदत्त मिश्रहि तिन दयी। पौराणिक वृत्ति नित नयी॥
-वीरसिंहदेवचरित, 2.21-32
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