वंशावली-लेखन प्रामाणिकता एवं समस्याएँ

वशावली समाज की वंश-परम्परा, रीति-रिवाज, संस्कृति, गोत्र-शाखा-प्रवर-ईष्ट-भैरव-जीवनमृत्यु आदि विशेषता की व्याख्या है। यह परम्परा भारत में हजारों साल से चल रही है। वंशावलीभारत में हजारों साल से चल रही है। वंशावलीलेखन पौराणिक काल से सतत सनातन-धर्म का दर्पण है। वंशावली परम प्रतापी राजा पृथु से चली आ रही प्रथा है। वंशावली हस्तलिखित पांडुलिपि है, जो अपने आप में विशिष्ट ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में क्षत्रिय-वंश एवं क्षत्रिय-कुलों से निकली हुई जातियों की उत्पत्ति से जन्म व मृत्यु तक का विवरण लिखा जाता है। वंशावली-लेखन का कार्य जातियों की उत्पत्ति के अनुसार अलग-अलग जातियाँ करती हैं। इन जातियों में प्रथम बड़वा जाति है। बड़वा समुदाय द्वारा क्षत्रिय-कुलों की वंशावली का लेखन किया जाता है। वैसे भारत में वंशावली- लेखन करनेवाले अनेक समुदाय हैं, जिनमें मुख्य रूप से राव-भाट, ब्रह्मभट्ट, जागा, पण्डे, राणीमंगा, याज्ञिक, बारोट आदि नाम शामिल हैं। ढाढ़ी लोगों की पीढ़ी रखने में और इन लोगों द्वारा पीढ़ी रखने में यही अन्तर है कि वे लोग ‘मुखबन्ध' (कण्ठ) पर रखते हैं। उनके पास लिखित पीढ़ी नहीं है। इससे क्रम में अन्तर आ जाता है। अच्छा जानकार ढाढ़ी 20 पीढ़ी तक सुना सकता है, अन्यथा 5-10 पीढ़ी तक सुना सकते हैं।



बड़वा (राव) समाज ऐसा समाज है, जिसमें ज्ञान का अथाह भण्डार है। वंशावली-लेखन का महत्त्व किसी लोकमान्यता या पौराणिक ग्रन्थों की तरह है। प्रत्येक जाति के लोग अपने कुल की वंशावली नियमित समय पर सुनते हैं और अपने कुल को याद रखते हैं। कभी कोई विवादास्पद बात हो जाती है तो उसे सुलझाने में वंशावली की मदद ली जाती है। (नरेन्द्र सिंह धन्नावत ‘टोंक' का एक लेख)।


शिलालेखों में भी वंशावली-लेखन की परम्परा रही है। भारत की देशी रियासतों के अधिकांश संग्रहालयों में आज भी हजारों साल पुरानी वंशावलियाँ देखी जा सकती हैं।


‘वंशावली-लेखन' भारतीय इतिहास की आदिमविद्या है। आज मिथक भी एक तरह के इतिहास हैं, यदि उन्हें विशेष दृष्टि से समझने की कोशिश की जाये। लिखित इतिहास से पहले मौखिक और स्मरण किया हुआ (श्रुति) इतिहास था। सारी सीमाओं के बावजूद इस इतिहास का महत्त्व है। स्रोत के रूप में युग-भूखण्ड की मानसिकता के प्रतिदर्श के रूप में इस सम्बन्ध में चारण-परम्परा का उल्लेख आवश्यक है, जिसकी रचनाओं में प्रत्यक्ष चाटुकारिता के अतिरिक्त इतिहास की महत्त्वपूर्ण कच्ची सामग्री होती थी। आरम्भिक इतिहासलेखन का कार्य अन्वेषणधर्मी यायावरों, दरबारी विद्वानों, ईसाई-मिशनरियों एवं प्रशासकों ने किया है। इस लेखन की भी अपनी-अपनी सीमाएँ थीं। वह पूर्वग्रहमुक्त नहीं था, कभी-कभी उसमें दुराग्रह भी झलकते हैं। फिर भी लेखन में, विशेषकर उसके अनुभवजन्य विवरणों में- महत्त्वपूर्ण कच्ची सामग्री के अतिरिक्त प्रभावशाली विश्लेषण भी मिलते हैं।


चारणों का उद्भव कैसे और कब हुआ, वे इस देश में कैसे फैले और उनका मूल रूप क्या था? आदि प्रश्नों के सम्बन्ध में प्रामाणिक सामग्री का अभाव है; परन्तु जो कुछ भी सामग्री है, उसके अनुसार विचार करने पर उस सम्बन्ध में अनेक । तथ्य उपलब्ध होते हैं। किसी विद्वान् ने लिखा है कि चारणों को भूमि पर बसानेवाले महाराज पृथु थे। उन्होंने चारणों को तैलंग देश में स्थापित किया और तभी से वे देवताओं की स्तुति छोड़ राजपुत्रों और राजवंशों की स्तुति करने लगे। यहीं से चारण सब जगह फैले।


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