वंशावली-विज्ञान एवं रक्ष-वंश

आज जब तमाम शैक्षणिक संस्थानों में नीतिशास्त्र(Moral Science) के द्वारा न्याय, परोपकार, सत्य, क्षमा-जैसे सद्गुण सिखाए जा रहे हैं, तब यह प्रश्न सहज ही उठ खड़ा होता है। कि क्या सद्गणों का आधान शिक्षा द्वारा किया जा सकता है? यदि हो, तो सुकरात की वह अवधारणा व्यर्थ साबित होगी जिसमें उनका कहना है- Never would a bad son have sprung from a good sire' ('कभी भी बुरा पुत्र एक अच्छे पिता से उत्पन्न नहीं होता')। इसका तात्पर्य स्पष्ट है अच्छाई या बुराई- दोनों हमें बाहर से नहीं प्रत्युत् अपने भीतर वंश के उस प्रवाह से प्राप्त होती है जो अपने साथ रक्त-मांस-मेद-मज्जा जैसे घटकों के अलावा सद्गुण- दुर्गुण जैसी सम्पत्तियाँ भी लेकर प्रवाहित है।



‘वंश' शब्द का अर्थ ही बाँस है। वैदिक साहित्य में वंशानां ते नहनानाम् (अथर्ववेद, 9.3.4), वंशोवनशयो भवति वननात् श्रूयत इति व। बाँस मानो वन में सोया रहता है अथवा गाँठों द्वारा बाँस से विभक्त रहता है इसलिए वंश कहलाया। लौकिक अर्थ में भी किसी कुल-परिवार को वंश कहने का आशय भी वही है; क्योंकि वह भी बहुत सारी पीढ़ियों से पृथक् रहता हुआ भी एक रहता है। उसमें विद्यमान सारे तत्त्व एक रहते हैं, इसीलिये वह 'वंश' है।


सम्पूर्ण संसार में एक-दूसरे को सिखाने की होड़ लगी हुई है। भागवत के कथा-पण्डालों से लेकर ‘मोटिवेशनल वक्ताओं की बाढ़ आ गई है। जिसे देखो वही सद्गुणों को सिखा रहा है बिना यह जाने हुए कि मनुष्य का स्वभाव उसके गुण-दोष, कुछ मास या फिर दिवस की परिणति नहीं है। यह तो हजारों पीढ़ियों के वंशवृक्ष का प्रतिफल है, जिसके स्वाद, रंग-रूप से समूची नस्ल का ब्यौरा मिलता है। तुलसीदास के मानस में श्रीराम को राजधर्म की शिक्षा देने तत्कालीन युग के महापण्डित वसिष्ठ जब जाते हैं, तो मात्र राम से वार्तालाप करके वसिष्ठ उनके वंश की संस्तुति करने लगते हैं


सुनि सनेह साने बचन मुनि रघुबरहि प्रसंस।


राम कस न तुम्ह कहहु अस हंस बंस अवतंस॥


-अयोध्याकाण्ड, दोहा 9 


शायद आपको याद हो पौराणिक सांध्य की वह गोधूलि बेला, जिसमें प्रजापति वंशोत्पन्न पुलस्त्यनन्दन मुनि विश्रवा अपनी यज्ञशाला में अग्निहोम कर रहे थे, ठीक उसी समय रक्षकुल में जन्मी कैकसी, जो सुमाली की दुहिता और राक्षसराज सुकेश की पौत्री थी, मुनि विश्रवा के पास जाकर उनसे पुत्रप्राप्ति के लिए पति बनने का आग्रह करती है। मुनि विश्रवा मान जाते हैं और उनके द्वारा कैकसी की कोख से चार शिशु जन्म लेते हैं। इनमें से दशग्रीव, कुम्भकर्ण, सूर्पणखा राक्षस-कुल के सूर्य बनते हैं। किसी ऋषि का शुक्र कैकसी के गर्भ में इतना विपरीत गुणधर्म वाला क्यों हो गया? इसका कारण विश्रवा दारुणायां तु वेलायां यस्मात् त्वं मामुपस्थिता- गोधूलि बेला में गर्भधारण को बताते हैं। हो सकता है यह तथ्य सही हो। लेकिन इस बात का विस्मरण कैसे किया जा सकता है कि विश्रवा और कैकसी ‘एग्जिसटेंस' की गहराइयों में मात्र कुछ मिनट के लिए एक हुए थे। दो देह एक प्राण का बोध बहुत ही कम वक्त के लिए हुआ था। इसके बाद वे एक दूसरे से जुदा हो गए। लेकिन वह गर्भ नौ मास तक कैकसी के प्राणों से अनुप्राणित, आहार से पोषित, रक्त से सिंचित और विचारों से निमज्जित होता रहा। किसी भी संतान में पिता का पौरुष और माता की प्रकृति होती है। पर इन दोनों का औसत संतान में क्या है, वह इस बात पर निर्भर करता है कि पति-पत्नी के मध्यआत्मीयता कितनी है। इसी का श्रेष्ठ उदाहरण है कैकसी की चौथी संतान विभीषण, जो गर्भप्रवास से प्रसव तक- बाल्यकाल से प्रौढावस्था तक पिता के साथ था। अतएव उस पर पिता का प्रभाव स्पष्टतः परिलक्षित होता है।


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