बारडोली के सेनापति

बारडोली की जनता के स्वभाव एवं चरित्र के कारण 1921 ई. के असहयोग आन्दोलन के समय ही उसे मुख्य केन्द्र बनाने का निर्णय लिया गया था। लेकिन चौरी-चौरा के हिंसक काण्ड के कारण उन्होंने अपना निर्णय स्थगित कर दिया। तभी से बारडोली तालुका सरकार की नाराज़गी का शिकार बन गया। 19 जुलाई, 1927 को बारडोली तालुके का रिवीज़नल सेटेलमेण्ट करके भूतकाल का बदला लेने के लिए लगान में 21.97 प्रतिशत की वृद्धि कर दी गयी। लगान में की गई इस भारी वृद्धि से ताल्लके में खलबली मच गयी। इस अन्याय के विरुद्ध जनता ने सरकार से शिकायत की,परन्तु सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया। गवर्नर जनरल ने कहा कि माल विभाग के निर्णयों में कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता, उसका निर्णय अन्तिम है।


सरकार की नीतियों और नीयत से लोग तंग आ गये थे, अतः उन्होंने लगान-वृद्धि के विरोध के लिए एक बार फिर वल्लभभाई के सहयोग की मांग की। वल्लभभाई यद्यपि अभी बाढ़ संकट निवारण के कार्यों में लगे हुए थे, तथापि किसानों की कठिनाइयों में निष्क्रिय बने रहना अथवा उन पर विपत्ति के समय कोई सहायता न देना, न केवल उनके स्वभाव के विपरीत था, अपितु वह इसे उपेक्षा का पाप समझते थे। एक स्थान पर अपनी अन्तर्वेदना व्यक्त करते हुए अपने भाषण में उन्होंने जो शब्द कहे, उनसे उनकी कृषक हितपरायण प्रवृत्ति का पूरा परिचय मिल जाता है। उनका कथन था कि, ‘‘किसान डरकर दुःख उठाए और ज़ालिमों की लात खाये, उससे मुझे शर्म आती है। मेरे जी में आता है कि किसानों को कंगाल न रहने देकर खड़ा कर दें और स्वाभिमान से सिर ऊँचा करके चलनेवाला बना दें। इतना करके मरूं तो अपने जीवन सफल समझेंगा।'' सरदार पटेल ने किसानों का नेतृत्व ग्रहण करने से पूर्व, काँग्रेस के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं- कल्याणजी मेहता, कुनबेर जी मेहता तथा खुशहाल भाई मेहता से स्पष्ट कहा कि पहले वे बारडोली जाकर यह जाँच करें कि किसान सत्याग्रह करने के लिए तथा कष्ट उठाने के लिए तैयार हैं या नहीं। बारडोली-काँग्रेस से जाँच-रिपोर्ट मिलने पर वल्लभभाई स्वयं बारडोली गये। वहाँ उन्होंने एक सार्वजनिक सभा में जनता से सीधा प्रश्न किया कि वे प्रतिरोध के लिए कहाँ तक तैयार हैं। उन्होंने इस सभा से सत्याग्रह की सफलता का आश्वासन न देकर किसानों के चरित्र, उनकी निष्ठा और लगन को चुनौती देते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा कि, “मेरे साथ खेल न किया जाय। मैं ऐसे काम में हाथ नहीं डालता जिसमें जोखिम न हो। जो लोग जोखिम उठाने के लिए तैयार हों, मेरे साथ आयें, मैं उनका साथ दूंगा।''



इस प्रकार बहुत स्पष्ट शब्दों में अपनी बात कहकर तथा उन्हें सात दिनों की मोहलत देकर वल्लभभाई अहमदाबाद लौट आये। इसके बाद उन्होंने गवर्नर जनरल को एक विस्तृत, विनम्र एवं मार्मिक पत्र लिखकर लगान वसूली स्थगित करने की मांग की। पत्र में स्पष्ट रूप से उल्लेख कर दिया कि सम्भव है यह लड़ाई तीव्र रूप धारण कर ले, जिसे रोकना आपके हाथ में है। इस पत्र के उत्तर में गवर्नर के सचिव ने कहा कि आपका पत्र, निर्णय के लिए माल विभाग के पास भेज दिया गया है। किसानों की दी हुई सात दिन की अवधि पूरी होने के पश्चात् पटेल पुनः बारडोली पहुँचे। वहाँ उन्होंने लोगों से अलग-अलग बात कर, सबकी राय मालूम कर, लोगों से घुमा-फिराकर, तर्कवितर्क कर उनके चेहरों, आँखों और दिलों में गहराई से झाँककर देखा तो उन्हें विश्वास और निश्चय दिखाई दिया। वह लोगों के संयम, उत्साह, निश्चय और दृढ़ता से प्रभावित हुए। फिर भी उन्होंने लोगों को एक बार फिर सत्याग्रह में आनेवाले संकटों के प्रति आगाह करते हुए कहा कि “यह लड़ाई ज़बरदस्त खतरों से भरी पड़ी है। जोखिमभरा कार्य किया जाना तो अच्छा है, किन्तु किया जाय तो किसी भी कीमत पर उसे पूरा करना चाहिये। हारोगे तो देश की लाज जायेगी और जीतोगे तो आपका भविष्य बनेगा। देश की इज्ज़त बढ़ेगी। इसलिए सोच-विचारकर जो करना चाहो सो करो।''


इस प्रकार भली-भाँति जाँच-परखकर जब वल्लभभाई को लगा कि किसान आन्दोलन के लिए तैयार हैं, तब वह गाँधी जी का आशीर्वाद लेने के लिए अहमदाबाद गये। गाँधी जी परिस्थितियों और वल्लभभाई के निश्चय- दोनों से परिचित थे, अतः उन्होंने तत्काल कहा, “अब मेरे लिए सिर्फ इतनी इच्छा करना बाकी रह गया है कि विजयी गुजरात की जय हो।''


गाँधी जी का आशीर्वाद मिलने के बाद आन्दोलन का समस्त भार सरदार पटेल के कन्धों पर था। अतः व्यक्तिगत जानकारी हेतु 4 फरवरी, 1928 ई. को बारडोली तालुके के समस्त किसानों की एक सभा बुलाई गयी। सभा में 80 गाँवों के प्रतिनिधि उपस्थित थे। इसके अतिरिक्त सभा में बम्बई धारा सभा के तीन सदस्य- भीमभाई नाईक, दादूभाई देसाई तथा डॉ. दीक्षित भी थे। सभा की अध्यक्षता करते हुए वल्लभभाई पटेल ने किसानों को सत्याग्रह का अर्थ, उसकी गम्भीरता तथा होनेवाले कष्टों से अवगत कराया।


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