वर्तमान में हमारा समाज, खेलों के प्रति र्तमान में हमारा समाज, खेलों के प्रति अत्यंत नकारात्मक सोच तथा घृणा । रखता है। परंतु आदिकाल से ही खेलों का व्यक्ति और समाज से अकल्पनीय गहरा रिश्ता रहा है। यह मानव सहित सभी जीवों की रग-रग में समाया है। बाल्यावस्था से खेल का विशेष संबंध है। तीन साल तक के बच्चों का बिना मतलब हाथ-पैर चलाना, उछल-कूद करना, उलट-पलट होना, यूँ ही नहीं होता। यह उनको कुदरत का सिखाया, नैसर्गिक खेल होता है, जिसे खिलन्दड़ी करना कहा जाता है। 7-8 साल तक की उम्र को खेल की उम्र कहा जाता। मानव के अंतर्मन पर खेलों की छाप बहुत गहरी है। खेल हमारी भाषा, साहित्य, सोच, स्वास्थ्य पर छाया हुआ रहा है। खेल बहुत तरल एवं संयोजी शब्द है, तभी तो खेल से संबंधित लोकोक्तियाँ और कहावतें बड़ी संख्या में हैं। इनके साथ ही ऐसे शब्द-संयोजन भी बड़ी संख्या में हैं, जिनका स्तर मुहावरे एवं कहावतों जैसा तो नहीं है, परंतु आम बोलचाल में प्रायः मुँह से निकल जाते हैं। खेल अपने चरित्र के कारण अनेकानेक मनोभावों को व्यक्त करने में भी सहयोगी है। इनमें से हाथ लगे कुछ को बाल-प्रसंग एवं बाल्यकाल संस्मरण के सहारे सहज लोकभाषा में पिरोने का प्रयास आगे किया गया है।
बच्चों को बिना सिखाए खेलना आ जाता है, उनका खेलते-खेलते मन नहीं भरता, इसलिए कहा गया है कि ‘खेलना बाल्यावस्था की नैसर्गिक प्रवृत्ति है। बच्चे खेल में ऐसे खो जाते हैं कि आसपास की घटनाओं, आवाजाही तथा परिस्थितियों को भी भूल जाते हैं। खाने-पीने का ध्यान न रखना, पतंग उड़ाते या पकड़ते समय गिर जाना या किसी से टकरा जाना आम बात है। खेल में मशगूल बच्चों को डाँट-डपट भी। नहीं सुनाई पड़ती। बच्चों को खेलना इतना भाता है कि मैदान न मिले तो सड़क या गली या घर के अंदर ही खेलना शुरू कर देते हैं, भले ही आप ‘सड़क को खेल का मैदान समझ रखा है क्या कहते हुए उनसे उलझते रहें। बच्चों को पता होता है कि खेलने पर शोर होगा, पतंग या गेंद किसी की छत पर या आंगन में गिरेगी, गुल्ली या गेंद से किसी को चोट लग सकती है, कपड़े फट सकते हैं, हाथापाई हो सकती है, तुम्हारे खेल ने नाक में दम कर दिया' कहकर उलाहना मिल सकता है, 'हमसे खेलकर दिखाओ' की चुनौती मिल सकती है, ‘रुको तुम्हारा खेल निकालते हैं' कहकर चेतावनी मिल सकती है, ‘उतरा खेल का भूत' कहते हुए पिटाई हो सकती है, परंतु बच्चों में खेल की चाह होती ही ऐसी है कि उन्हें न रोकें तो उनके लिए खेल में दिन-रात एक करना रोज की बात हो जाए।
छुट्टियाँ नज़दीक आते ही बच्चों के खेल के सपने और खेल-ही-खेल के अरमान सच होने लगते हैं। वे छुट्टीवाले दिन सुबहसवेरे जागकर चुपचाप बाहर निकल, खेलने की फिराक में लग जाते हैं। खेलने के लिए मित्र के घर पर जाकर उसे इस प्रकार बुलाना कि घरवालों को पता न लगे, अपने आपमें एक पहाड़ चढ़ने जैसा होता है। घरवालों से नज़र बचाकर खेलने के लिए बाहर निकल जाना भी अपने आपमें एक खेल जीतने जैसा ही होता है। बच्चे बस्ती से दूर खेलना चाहते हैं, ताकि कोई उन्हें बुला न सके और वे खेल की कसर पूरी कर लें। जिस प्रकार तीर्थयात्री निकलने से पूर्व निर्विघ्न यात्रा की कामना करता है, उसी प्रकार बच्चे कामना करते हैं कि आज भूख न लगे, कोई जान न पाए कि कहाँ खेला जा रहा है और कभीकभी तो यह भी कि, हमें छोड़ सब लोग शाम तक गायब हो जायें। पढ़ रहे बच्चे के सामने से जब कोई दूसरा खेलने लगता है, तब उसका मन भी खेलने के लिए मचल उठता है; ऐसे में जब तक वह खेल न ले, तब तक उसकी निगाह किताब पर रहती है और मन खेल की सैर करने निकल जाता है।
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