भारत का सरदार

गठा हुआ शरीर, लौह रेखाओं से आच्छादित मुख, दृढ़ता के प्रतीक जबड़े, शत्रु को चुनौती और मित्र को अभय-दान देती हुई तेजस्वी आँखें, स्थिर पग, दाहिने हाथ में कर्म और बायें हाथ में विजय- यह था हमारे सरदार का पार्थिव रूप जो 15 दिसम्बर, 1950, शुक्रवार के दिन पूर्वार्ध में, मृत्यु की शाश्वत शान्ति में लय हो गया और उसी रात्रि को पवित्र अग्नि ने उसे अपने अंक में धारण करके वहीं पहुँचा दिया जहाँ से 75 वर्ष पूर्व उसका आगमन हुआ था। उस समय उस लौह पुरुष ने मानो अपनी कठोरता भूलकर रवि ठाकुर के शब्दों में कहा


मरण तु आओ-रे आओ; तुहू मम ताप घुचाओ।


अयि मृत्यु, तुम आओ, शीघ्र आओ और मेरी विरहाग्नि को शान्त करो। । तब वाणी मौन में विलीन हो गयी। आदि और अन्त का भेद जाता रहा। एक महान् जीवन सम्पूर्ण हो गया। रवि ठाकुर के शब्दों में पतिव्रता विजन रात में पति के साथ मिलकर पूर्णकाम हो गयी।



। 'पटेल' शब्द जिह्वा पर आते ही उस योद्धा की मूर्ति नयनों में उभर आती है। जिसने उपमन्यु के समान कर्त्तव्य-पथ पर डटे रहना सीखा था और जिसके लिए डटे रहने का अर्थ था विजय। वह ज्वालामुखी की तरह भस्म करने की शक्ति रखते थे। परन्तु विस्फोट उनमें नहीं था। वह प्रायः मौन रहते थे, परन्तु उनका मौन उनके कर्म में सहस्रों जिह्वाओं से बोलता था। ‘सच्चे सिपाही और सरदार कभी बढ़-बढ़कर बातें नहीं करते, लेकिन जब बोलते हैं तो काम फतह ही समझिए।


खेड़ा में सत्याग्रह का घोष उठा। अफ्रीका के जादूगर गाँधी ने पुकारा, ‘‘मेरे साथ खेड़ा चलने को कौन तैयार है?'' वल्लभभाई ने सबसे आगे बढ़कर कहा, “मैं तैयार हूँ।'' नागपुर झण्डा सत्याग्रह के नेता सेठ जमनालाल बजाज जब कृष्ण- मन्दिर में जा विराजे, तब प्रश्न उठा- अब कौन आगे बढ़ेगा? गर्वी गुजरात के गर्वीले सरदार ने वहीं से पुकारा, “मैं आ रहा हूँ।'' बोरसद में शासक ने जनता पर अनुचित दण्ड लगाया तो सबसे पहले सरदार वहाँ पहुँचे और तबतक नहीं हटे जबतक वह दण्ड रद्द नहीं कर दिया गया। और सरदार ही क्यों, जब प्रकृति ने गुजरात के धैर्य की परीक्षा लेने के लिए प्रलय को मृत्यु का सन्देश देकर भेजा, तब वह भी इस दृढ़ चट्टान से टकराकर विमुख लौटगयी। बारडोली तो उनके जीवन में उस स्वर्णिम मोड़ के समान थी, जिसने उनके ही जीवन को आलोकित नहीं किया बल्कि सारे देश के भविष्य को जगमगा दिया। वह प्रकाश देश की सीमाओं को तोड़कर बाहर भी पहुँचा दिया और अफ्रीका के ट्रांगानिका प्रदेश में जब सत्याग्रह करने का प्रश्न उठा, तब आगा खाँ जैसे व्यक्ति की दृष्टि भारत के सरदार पर ही गयी। वस्तुतः ‘सरदार' शब्द ही व्यवस्था, संगठन, सफलता और विजय का प्रतीक बन गया। वह विद्रोह-का प्रतीक बन गया।


सरदार विद्रोही बन गये और वह विद्रोह उन्हें विरासत में मिला था। उनके पिता भी विद्रोही थे और पिता ही क्यों, उनका शरीर जिस भूमि की मिट्टी से बना था, गर्वी गुजरात की वह भूमि सदा ऐसे विद्रोहियों को जन्म देती रही है। गीता का विद्रोही गायक योगेश्वर कृष्ण इसी प्रदेश का एक शासक था और इसी प्रदेश में जन्म लिया था दयानन्द ने, जिसने अनुपम दृढ़ता और निडरता के साथ तत्कालीन बौद्धिक जड़ता और मानसिक दासता के विरुद्ध एकाकी युद्ध की घोषणा की। गाँधी को जन्म देने का गौरव भी उसी गर्वी गुजरात को मिला था, जिसने प्रेसीडेंट पटेल को लोरियाँ सुनाई थीं। उसी भूमि में लोट- लोटकर बड़ा होनेवाला वह निर्मोही लौहपुरुष उनसे अलग कैसे हो सकता था। इसलिए उसके रक्त में ही विद्रोह नहीं था, उसकी श्वास में, दृष्टि में, गति में- सब जगह विद्रोह-ही-विद्रोह था। वह विद्रोह शान्त था, पर उसका लक्ष्य था विजय और उसका परिणाम था सफलता ! सरदार का ध्येय यह वाक्य था


शूर संग्राम को देख भागे नहीं, देख भागे सो शूर नाहीं।।


युद्धकाल में उनकी उग्रता, संकट- काल में उनकी कुशलता और चुनौती, मिलन पर उनकी उपेक्षापूर्ण दृढ़ता- ये कुछ ऐसे गुण थे जो हर किसी में नहीं होते। उन्होंने खेड़ा-सत्याग्रह के अवसर पर कहा था, “यदि राजसत्ता अत्याचारी हो तो किसान का सीधा-सा उत्तर था- जा, जा तेरे जैसे कितने ही राज्य मैंने मिट्टी में मिलते देखे हैं।'' ये एक सैनिक के शब्द थे, उस सैनिक के जिसकी दृष्टि तो वर्तमान पर रहती, पर जो निरन्तर भविष्य का निर्माण करता रहता। इसलिए उसके शब्द सदा सत्य होते। सरदार के शब्द भी सत्य हुए और उन्होंने अत्याचारी के राज्य को मिट्टी में मिलते देखा।


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