हर व्यक्ति का सट संघर्षों का जारी है।

सफर संघर्षों का, 'वह बजाती ढोल', के सफ़र का भाग दो है। शिक्षाविद् एवं बहुआयामी व्यक्तित्व श्री कारुलाल जमड़ा का यह काव्य-संग्रह एक ओर गाँव की यात्रा करवाता है तो दूसरी ओर शहरीकरण, भौतिकतावादी एवं आधुनिकता की दौड़ में भाग रही नयी पीढ़ी से परिचय भी करवाता है। संग्रह चार भागों में बाँटा गया है। पुरानी यादों को लेकर स्मरण, रिश्तों के टूटते और माँ-बेटी की व्यथा को स्ववेदना, बदलते परिवेश की अनुभूति को स्वानुभूति में और सामाजिक चिन्ताओं को स्व-चिन्तन में प्रस्तुत किया है।



कविता ‘मेरा गाँव', ‘यादें अपने गाँव की', 'इस दिवाली में', गाँव के मनोरम दृश्य एवं त्योहार के उल्लास का वितरण करती है, मैं और मेरे दादाजी' में बातों के माध्यम से बुजुर्गों के प्रति सम्मान, प्यार और कर्तव्य की बात कही है, वहीं 'बेफिकरा बचपन में पिता के साये में बीता बचपन याद आया। श्री जामड़ा का वसन्त ऋतु प्रेम, ‘वासन्ती यादें में झलकता है। पहले भाग की आत्मा ‘वह बजाती ढोल' में समाई है। इस कविता के माध्यम से एक स्त्री के जीवन का चित्रण किया है जो अपने कंधों पर बीस किलो का ढोल टांगे परिवार के दायित्वों का निर्वहन करती हुई लोगों के तीज-त्योहार को खुशी में तब्दील करती है जबकि अब उसकी उंगलियाँ काँपने लगी हैं। शीर्षक- कविता ‘सफ़र संघर्षों का' के माध्यम से कवि ने एक स्त्री की संघर्ष-गाथा को बेहद भावुकता के साथ प्रस्तुत किया है। एक स्त्री किस प्रकार बढ़ती उम्र के साथ परिवार और समाज में बदलाव से सामञ्जस्य स्थापित करने का प्रयास करती हुई अपना सफ़र जारी रखती है, ‘कारु और कारु' में वह अपनी खोज की टीस को दर्शाता है तो स्वीकारोक्ति में यह स्वीकार कर लेता है कि वह, वह नहीं कर पाया जो सोचता था।


संग्रह के दूसरे भाग स्ववेदना में माँ, बेटी और पिता की वेदनाओं को दर्शाया है। बेटियाँ किस प्रकार पीहर से कटती और ससुराल से सिमटती जाती, कविता ‘बेटियाँ ससुराल' में बताया है। जब आया करते थे मेहमान' में रिश्तों के बदलाव के कारण को । इन पंक्तियों में बताया है


आज वैसे भी मेहमान आते नहीं हैं, आयें कैसे? हम भी कभी जाते नहीं हैं।


घर पक्के और इरादे मोटे हो गए हैं, भवन बड़े पर मन छोटे हो गए हैं।


वेदना का जल, कविता की इन पंक्तियों- ज़िद (दौड़) ऐसी कि सारे सपने कपूर हो गये और इस जिद में अपनों से ही दूर हो गये..., ने बेहद ही भावुक कर दिया। आधुनिकता की दौड़ में समाप्त हो रही इंसानियत को ‘इंसान की कदर करो भाई' में व्यक्त किया है। अन्य कविताओं में भी वेदनाओं को बखूबी तरीके से प्रस्तुत किया गया है।


तीसरे खण्ड 'स्वानुभूति' में उन अनुभूतियों को दर्शाया गया है जो कवि ने महसूस की हैं। कविता ‘परिवर्तन और युग परिवर्तन में व्यक्ति की जीवनशैली में आए बदलाव पर चिंता व्यक्त की गई है। ‘विडम्बना में एक कमज़ोर की कथा- व्यथा का विवरण है। कमजोर इसलिए मारा जाता है क्योकि वह कम-जोर होता है। इस खण्ड में ऐसा लगता है कि रचनाकार ने व्यक्तिगत जीवन को अधिक आधार बनाया है। ‘भोपाल से लौटकर' में बेटियों का पिता के प्रति प्रेम और अपेक्षाओं को बेहद भावुकता के साथ कहा कि पापा! जल्दी आ जाना...।


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