राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय खेलों की बुनियाद आञ्चलिक खेल

कहा जाता है जब यह ब्रह्माण्ड नहीं था, तब परमात्मा को भी । " अकेलेपन का आभास हुआ और ऊब होने लगी, तब उसने स्वयं को एक से अनेक में विभक्त कर लिया और ब्रह्माण्ड की संरचना में संलग्न हो गया। सृष्टि को ब्रह्माण्ड की संरचना के पहले अनन्त क्रीड़ाएँ कहा जा सकता है, जिसमें जीवात्मा और मृत्यु अपरिवर्तनशील तथा सम्पूर्ण प्रकृति सृष्टि की परिर्वनशील नीति-नियमों से आबद्ध है। आँधी, तूफान, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, हवा का सरसराकर कुलांचे भरना, बादल का आकाश में दौड़ना-गरजना, पानी का बरसना, ऋतुओं का बदलना, फूलों-फलों से वृक्षों का लदना-झड़ना, सूर्य का तपना, चन्द्र का शीतलता देना आदि सृष्टि के खेल का ही हिस्सा हैं।



जब से मानव ने इस धरती पर आँख खोली, तभी से उसने सृष्टि के सृजित खेलों को निहारा है। इन्हीं खेलों से उसकी चेतना पर एकान्त गढ़ती कल्पना रूपायित हुई। धीरे-धीरे वह चित्त-रञ्जन के अवसरों और माध्यमों को तलाशता गया। युग और रुचि के अनुरूप इनमें बदलाव आते गये और खेल परिमार्जित होकर नवीन रूप लेते गए। धरती पर खेल का जन्म तो धरती के जन्म के साथ ही हुआ, परन्तु खेल-गतिविधियाँ 4000 ईसा पूर्व आस्तित्व में आयीं। प्राप्त अवशेषों, कलाकृतियों, शैलचित्रों, स्मारकों आदि से इसकी पुष्टि होती है।


आज जो भी खेल संसार के सामने आए हैं, सभी आञ्चलिक खेलों से ही निकलकर आए हैं। इसकी पुष्टि आञ्चलिक खेलों से की जा सकती है। जो परिमार्जित होकर आए हैं और वर्तमान में राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय खेलों के रूप में स्थापित हो चुके हैं। ‘ओलम्पिक नाम से आयोजित होनेवाली खेलपरम्परा, आज भी एक अच्छे उदाहरण के रूप में प्रचलित है। इसकी सर्वप्रथम बुनियाद यूनान के पेलोपोनेसस नामक एक छोटे-से गाँव में ‘ओलम्पिया' नाम से पड़ी थी।


वर्तमान भारतीय ग्राम्याञ्चलों में अनगिनत खेल आज भी अपने मूल रूप में विद्यमान हैं। कुछ खेल समय के साथ आगे नहीं बढ़ सके और थक-हारकर अपना अस्तित्व खो गये और कुछ अपनी पहचान नहीं बना सके तथा कुछ अपनी आञ्चलिक सीमा लाँघकर स्थापित हो गये। इन आञ्चलिक खेलों के लिए न लम्बे-चौड़े मैदानों की आवश्यकता होती है और न ही खर्चीले उपकरणों की। ये सामान्य नियमों से आबद्ध होते हैं। हार- जीत की व्यावहारिकतावाले इन खेलों को खेल-भावना, शिष्टाचार, नैतिक व्यवहार और सत्यनिष्ठा से खेला जाता है। इस सन्दर्भ में खेल-पत्रकार ग्राण्टलैंड राइस (1880-1954) ने कहा कि ‘अहम यह नहीं कि खेल में हारे या जीते, अहम यह है कि तुमने कैसा खेला' परन्तु ओलम्पिक-संस्थापक पियरे डीकॉबिरटीन (1863-1937) ने खेल में हिस्सा लेने को ही सबसे महत्त्वपूर्ण माना है। अञ्चल में आज भी इसी भावना से आञ्चलिक खेलों को खेलते देखा जा सकता है।


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