पूरी तरह खत्म न करें खेलने का समय

कुदरत ने मानव शरीर का निर्माण UD इस प्रकार किया है कि उसके ७ शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भाग- दौड़ (शारीरिक श्रम) तथा मानसिक स्वास्थ्य के लिए खेलना बहुत ही जरूरी है। जीवों के विकासवाद पर विश्वास करें तो, इसे समझना एकदम सरल है। उदर- पूर्ति एवं जंगली जानवरों से बचाव-संघर्ष तथा अपनी खानाबदोश/यायावर-प्रवृत्ति के कारण आदिमानव को महीने के अधिकांश दिन भागना-दौड़ना एवं ऊँचे स्थानों/पेड़ों पर चढ़ना-उतरना पड़ता था। वह भी युक्तियुक्त तरीके से विचार करते हुए, क्योंकि बिना सोचे-समझे यहाँ-वहाँ दौड़ने से न तो जंगली जानवरों से बचाव होता और न ही भोजन मिलता। इन कारणों से मानव शरीर ‘विचार-आश्रित श्रम का आदी हो गया। भाग-दौड़ तथा उछल-कूद से जहाँ एक ओर शरीर हाँफने तथा हृदय तेजी से धड़कने लगता है, वहीं दूसरी ओर बचाव तथा विजय के लिए मंथन, ‘सतत- अंतहीन, योजना-निर्माण एवं उसमें विजयोन्मुख परिशोधन करने की प्रवृत्ति से बुद्धि बढ़ती है। हाँफने से हवा की ज्यादा मात्रा फेफड़ों में पहुँचती है, जिससे खून में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ जाती है और हृदय के तेज धड़कने से खून अधिक गति से शरीर के विभिन्न अंगों में पहुँचने लगता है। हाथ एवं पैर की अंगुलियाँ शरीर के दूरस्थ अंग हैं, जिसके कारण वहाँ अच्छा खून धीरे-धीरे ही पहुँच पाता है, परंतु उपर्युक्त प्रक्रिया से वहाँ की कोशिकाओं में भी ताजे एवं प्राणवायु ऑक्सीजन से भरपूर रक्त की आपूर्ति प्रचुरता एवं तेजी से होने लगती है। (कोशिकाओं में ऑक्सीजन की कमी से उपापचय (Metabolism) एवं विकास-क्रियाओं पर प्रतिकूल असर पड़ता है, यहाँ तक कि इस कारण कैंसर भी हो सकता है।) जब खून नसों में तेज गति से बहता है तो नसों की दीवारों से चिपके रक्त के अवयव भी खून के साथ बह जाते हैं जिससे उनमें ब्लॉकेज (Blockage) कम होती है। शारीरिक श्रम से शरीर के अंदरूनी तथा बाहरी- सभी अंगों/हिस्सों में हलचल या उथल-पुथल या कम्पन तथा दबाव-खिंचाव आता है, जिससे उनमें बननेवाले अपशिष्ट पदार्थ, जैसे- मृत कोशिकाएँ, खनिज कण/क्रिस्टल, पसीना, मल-मूत्र, पथरी आदि, रुककर जमा नहीं होने पाते और अंगों के हिलने के कारण खिसकते-खिसकते उत्सर्जन-तंत्र के रास्ते बाहर निकल जाते हैं। उपर्युक्त शारीरिक हलचलों से पाचन-तंत्र में ऐसे रसायनों का स्राव भी होता है, जो कब्ज नहीं होने देते



परन्तु वर्तमान समय-काल में सभ्यता के विकास के कारण मनुष्य की जीवनशैली में विचारपूर्ण तथा योजनाबद्ध तरीके से भागना-दौड़ना तथा ऊँचे स्थानों- पेड़ों पर चढ़ना-उतरना जैसी बुनियादी गतिविधियाँ समाप्त हो गयीं, जिन पर हमारी उत्तरजीविता तथा स्वास्थ्य टिका हुआ है। इन गतिविधियों से दूर होने का प्रभाव शरीर पर मंद गति से पड़ता है, जो बढ़ते रोगों के रूप में धीरे-धीरे सामने आ रहा है। अब यह प्रश्न उठता है कि जब भागना-दौड़ना तथा ऊँचे स्थानों-पेड़ों पर चढ़ना-उतरना न तो आवश्यक रहे और न ही वर्तमान जीवनशैली में सम्भव है तो इसका विकल्प क्या है?


‘भाग-दौड़ तथा उछल-कूद वाले खेल, शारीरिक श्रमवाले कार्य एवं व्यायाम और योग तथा प्राणायाम इसके विकल्प के रूप में सामने आते हैं। इन सभी में मेहनतवाले खेल सर्वोत्तम उपाय हैं; क्योंकि इनमें श्रम के साथ बुद्धि भी लगानी पड़ती है। खेलने से शरीर में ऐसे रसायन स्रावित होते हैं जो बुद्धि-कौशल, खुशी तथा मानसिक शांति बढ़ाते हैं एवं निराशा दूर करते हैं। इन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर, मेहनत करने, व्यायाम, योग तथा प्राणायाम करने से यथायोग्य लाभ मिलता है। ऐसे अनेक जीव-जंतु हैं, जो अधिकाशतः निठल्ले पड़े रहते हैं और फिर भी स्वस्थ रहते हैं, परंतु मानव उनमें से नहीं है, उसके लिए चलना-फिरना-दौड़ना-शारीरिक श्रम करना बहुत ही जरूरी है। शारीरिकमानसिक श्रम के अभाव में उसकी आनेवाली पीढ़ियाँ धीरे-धीरे, किसी गम्भीर बीमारी के संकट में फंस सकती हैं। मनुष्यों के साथ-साथ ये नियम विभिन्न पालतू पशुओं पर भी लागू होते हैं। गाय, भैंस, बकरी, आदि के स्वास्थ्य एवं दूध की गुणवत्ता पर उनको बांधकर रखने से काफी बुरा असर पड़ता है।


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