प्राचीन भारत में क्रीडा के विविध आयाम

क्रीडा शब्द संस्कृत-भाषा की क्रीड् क्रीडायाम् धातु से घञ् प्रत्यय तथा स्त्रीत्व की विवक्षा में टाप् प्रत्यय का योग करने पर निष्पन्न होता है। ‘क्रीड़ा' का अर्थ है- खेल, आमोद, किलोल, केलि, तमाशा, आमोद- प्रमोद, मनोरंजन आदि। अमरसिंह ने क्रीडा के द्रव्य, केलि, परिहास, खेल, नर्म व क्रीडा-इन छः नामों का उल्लेख किया है-



द्रव्यकेलिपरीहासाः क्रीडा खेला च नर्म च।


-अमरकोश, 1.7.32


हेमचन्द्राचार्य ने खेल के विविध अभिधानों का उल्लेख करते हुए कहा है-


कनिष्ठा श्यालिका हाली यन्त्रणी केलिकुञ्चिकाः।


केलिर्दवः परिहासः क्रीडा लीला च नर्म च।


देवनं कूदनं खेला, ललनं वर्करोऽपि च॥


 अभिधानचिन्तामणि 555-556


आमोद-प्रमोद के लिए जो कार्य किया जाता है, वह क्रीडा कहलाता है। यजुर्वेद (18.5) और तैत्तिरीयसंहिता (4.7.2.2) में विविध क्रीडाओं के लिए क्रीडा' शब्द है और मनोरंजन के साधनों के लिए ‘मोद शब्द का उल्लेख मिलता है- क्रीडाच में मोदश्च मे।।


'खेल' शब्द का अंग्रेजी-रूपान्तर ‘स्पोर्ट' है। स्पोर्ट शब्द की व्युत्पत्ति पुराने फ्रेंच शब्द देस्पोर्ट' से हुई है, जिसका अर्थ अवकाश है।


खेल कई नियमों एवं रिवाजों द्वारा संचालित होनेवाली एक प्रतियोगी गतिविधि है। खेल सामान्य अर्थ में उन गतिविधियों को कहा जाता है, जहाँ प्रतियोगी की शारीरिक क्षमता खेल के परिणाम अर्थात् जय-पराजय का एकमात्र अथवा प्राथमिक निर्धारक होती है, किन्तु यह शब्द दिमागी खेल, मशीनी खेल जैसी गतिविधियों के लिए भी प्रयोग किया जाता है, जिसमें मानसिक तीक्ष्णता एवं उपकरण-सम्बन्धी गुणवत्ता प्रमुख तत्त्व होते हैं। सामान्यतः खेल को एक संगठित प्रतिस्पर्धात्मक और प्रशिक्षित शारीरिक गतिविधि के रूप में पारिभाषित किया गया है, जिसमें प्रतिबद्धता तथा निष्पक्षता होती है। मनुष्य के व्यक्तित्व के चहुंमुखी विकास में खेलकूद की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है। इनमें मनोरंजन तो होता ही है, शारीरिक क्षमता भी बढ़ती है। खेल के माध्यम से स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की भावना उत्पन्न होती है जो समाज को जोड़ने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।


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