पुराणगाथा गेंद की

जनजीवन में खेलों का महत्त्व बहुत काल से चला आ रहा है। ऋग्वेद में गौक्रीड़ा, रथधावन-जैसे सार्वजनिक खेलों का सन्दर्भ मिलता है और परवर्ती काल में चूत को भी क्रीड़ा मानकर उसके आलोचनात्मक परिणाम लिखे गए। एक खेल गेंद का है और यह लगभग चार हजार सालों का इतिहास मनोरंजक माध्यम के रूप में लिए हुए है। गेंद यानी बॉल। यह हमारी बहुत जानी-पहचानी है। बॉल यानी गोल, गोल यानी बॉल। दादी-दादा खेले। माता-पिता खेले। हम खेले और हमारे बाद बेटी-बेटे। बॉल सबकी प्रिय से भी प्रिय है।



कई खेलों का आधार है बॉल। यदि बॉल है तो खेल है, बॉस हाथ में आ जाए तो खेलने की तरकीब हम ढूँढ़ ही लेते हैं। बॉल पकड़ी जाती है। फेंकी जाती है। उछाली और झेली जाती है। धकेली तथा चलाई भी जाती है... इस बॉल ने संसार की हर सभ्यता और संस्कृति में अपनी मौजूदगी दिखाई है, चाहे माया जैसी सभ्यता ही क्यों न हो, जिसकी तस्वीर भी हमें मिल चुकी है। अन्यत्र उत्खननों में साबुत बॉलें मिली हैं....। नाम तो है इसका गेंद या गेंदू मगर संस्कृत में इसको ‘कन्दुक' कहा गया है। यह ‘क’ हमारे मुखलाघव के लिए 'ग' में बदल गया है, वैसे ही जैसे प्रकट को प्रगट और नकद को नगद बोलने में सहूलियत होती है, कुछ नियमों के तहत प्राक् भी प्राग् हो जाता है...।


नींबू, नारियल, कपित्थ या कबिती और बेल-जैसे किसी फल को देखकर बॉल का निर्माण किया गया होगा, यह सहज विश्वास होता है। अनेकानेक पुरास्थलों के उत्खननों, खासकर हड़प्पाकालीन कानमेर-गुजरात इस प्रसंग में हमें याद आता है जहाँ बजनेवाली गेंदें भी मिली हैं..। कहीं दौड़ लगवानेवाली होने से इसका नाम ‘दोड़ी' या ‘दड़ी' पड़ गया तो कहीं डोट या पीटनेवाली होने से डोट कहलाई...।।


यो तो बालकों को यह बहुत रुचिकर लगती है। हरिवंशपुराण में श्रीकृष्ण के कंदुक खेल पर तो कई श्लोक मिल जाते हैं, उसको खोजने की आड़ में कालिया नाथ लिया गया...। नारियों ने भी गेंदों की कई क्रीड़ाएँ दिखाई हैं तभी तो मूंछों पर नींबू ठहराने जैसी कहावत की तरह ‘कूर्पर (कोहनी) पर कंदुक दिखाना' जैसी कहावत भी रही होगी। क्यों नहीं, कुषाणकालीन एक वेदिका स्तम्भ पर ऐसा मोटिफ भी है, जिसमें नायिका अपनी कोहनी पर कंदुक को लिए कौतुक रच रही है।


मृच्छकटिकम् के रचयिता शूद्रक-जैसे रचनाकार को यह खेल इतना भाया कि अपने एक भाण में उन्होंने विट के मुंह से इसकी प्रशंसा करवाई कि इस खेल में शरीर की कई क्रियाएँ संपन्न होती हैं। इन अंग संचालनों में नत, उन्नत, आवर्तन, उत्पतन, अपसर्पण, प्रधावन वगैरह-वगैरह।विट स्वयं इन संचालनों को पसंद करता था। उसने सखी-सहेलियों के साथ प्रियंगुयष्टिका नामक एक नायिका की कंदुक-क्रीड़ा का वर्णन करते हुए सौ बार गेंद उछालने पर जीतकर खिताब लेने का सन्दर्भ दिया है। गुप्तकाल की यह दास्तान है। अनेकानेक मन्दिरों में यह क्रीड़ा अनेकत्र देखी जा सकती है। ऐसी नायिकाओं को ‘कंदुकक्रीड़ाक' के रूप में शिल्पशास्त्रों में जाना गया है। है न नन्हीं-सी गेंद की गौरवशाली गाथा...। तुलसीदास की श्रीरामचरितमानस में भी सीता-स्वयंवर के समय लक्ष्मण कहते हैं- जो तुम्हारि अनुसासन पावौं कंदुक इव ब्रह्माण्ड उठावौं॥ (बालकाण्ड, 252.4) 


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