ठोझ हिमाचल व उत्तराखण्ड में महाभारत-युद्ध का पारम्परिक खेल

हिमाचल का ठोड्डा, सदियों से चला आ रहा महाभारत-युद्ध SC का पारम्परिक नृत्य-नाट्य है। इसमें पाशी यानी पाण्डव दल और शाठी यानी शतदल कौरव का प्रतिनिधित्व करनेवाले योद्धा रण में उतरकर धनुष-बाण से युद्ध-नाट्य प्रस्तुत करते हैं।


आज से दस-बारह वर्ष पहले (सम्भवतः 2005-06) की बात है। हिमाचल के सिरमौर जिले के गिरिपार में बसे हाटी समुदाय (एक आदिवासी समाज) पर पुस्तक लिखने के उद्देश्य से मैं इस क्षेत्र में आया था। शिलाई कॉलेज के एक प्रोफेसर डॉ. के. तोमर जी का सान्निध्य प्राप्त हुआ। उनके ही संग क्षेत्रभ्रमण करते हुए लेखन-सामग्री एकत्रित कर रहा था। बाद में यह पुस्तक ‘हिमाचल गिरिपार का हाटी समुदाय' नाम से प्रकाशित हुई।



एक दिन तोमर जी ने कहा कि यहाँ से तीन किलोमीटर की दूरी पर एक स्थान हैशिवनल, जहाँ पर बिस्शु का मेला लगता है। मेले का मुख्य आकर्षण ठोड्डा खेल होता है। आज दोपहर को वहाँ चलना है। निश्चित समय पर हम वहाँ के लिए चल दिए। रास्ते में वह मुझे ठोड़ा खेल के बारे में बताते रहे।


महाभारत-युद्ध का प्रतिनिधित्व करता बिस्शु मेला


यूँ तो विषुवत-संक्रान्ति के दिन हिमाचलप्रदेश और उत्तराखण्ड में जगह- जगह बड़े मेले जुटते हैं। तीन दिन तक चलनेवाले इस मेले का नाम विषुवत- संक्रान्ति के नाम से बिगड़कर ‘बिस्शु’ पड़ गया। मेले में धनुष और बाणों से रोमाञ्चकारी युद्ध होता है और यह तथाकथित संग्राम तीन दिन तक चलता है। इसमें रणबाँकुरे इन्हीं गाँवों के लोग होते हैं। उत्साह और जोश का यह आलम रहता है कि युवा तो क्या बूढ़े भी अपना कौशल दिखाने में पीछे नहीं रहते। ऐसा लगता है जैसे मेला-स्थल रणभूमि में तब्दील हो गया हो। कुछ ऐसे ही तुमुलनाद में बजते हैं रणसिंघे और ढोल-दमाऊ वाद्य-यन्त्र। दर्शकों की ठसाठस भीड़ मकान की छतों तक जमी रहती है। ये युद्ध असल नहीं होते। यह एक लोककला का रूप है और नृत्य-शैली में किया जाता है। यहाँ की बोली में इस युद्ध को ‘ठोड़ा' कहते हैं। खिलाड़ियों को ‘ठोडोरी' कहा जाता है। धनुष-तीर के साथ यह नृत्यमय युद्ध बिना रुके चलता रहता है। दर्शक उत्साह बढ़ाते रहते हैं। नगाड़े बजाते रहते हैं। लयबद्ध ताल पर ढोल-दमाऊ के स्वर खनकते रहते हैं। ताल बदलते ही युद्धनृत्य का अन्दाज़ भी बदलता रहता है।


युवक-युवतियाँ मिलकर सामूहिक नृत्य करते हैं।


आगे और---