उत्तराखण्ड के चार धामा की यात्रा

समुद्र-तल से 3293 मी. यानि 10804 फीट की ऊँचाई पर Clस्थित यमुनोत्री धाम, चार धाम यात्रा का पहला तीर्थ है। यमुना का उद्गम समुद्रतल से 4421 मी. ऊँचाई पर कालिंदी पर्वत से माना जाता है। यमुनोत्री तीर्थ धार्मिक महत्त्व के साथ ही मनमोहक प्राकृतिक सौन्दर्य के कारण भी तीर्थयात्रियों और पर्यटकों को मोहित करता है। यहाँ पर दिखाई देनेवाले बर्फ से ढके ऊँचे पर्वत-शिखर, देवदार और चीड़ के हरे-भरे जंगल, उनके बीच फैला कोहरा, बर्फीले पहाड़ों पर चाँदी-सी चमकती हुई सूर्य की रोशनी, पहाड़ों के बीच बहती सुगन्धित हुवाओं की ध्वनि के साथ बहती यमुना की शीतल धारा मन को मोह लेती है। घुमावदार रास्ते, भूस्खलन, सुरक्षित यात्रा और जंगलों को बचाने के लिए जगह-जगह लिखे स्लोगन, यात्रा पर आनेवाले लोगों को उनकी ज़िम्मेदारी का एहसास कराते हैं।



पुराणों में यमुनोत्री के साथ असित ऋषि की कथा भी जुड़ी है। कहा जाता है। कि वृद्धावस्था के कारण असित ऋषि कुण्ड में स्नान करने नहीं जा पाते थे। उनकी श्रद्धा देखकर यमुना स्वयं उनकी कुटिया में ही प्रकट हो गयीं। इसी स्थान को यमुनोत्री कहा जाता है। कालिंद पर्वत से निकलने के कारण इसे कालिंदी भी कहा जाता है। माना जाता है कि यमुनोत्री धाम के कपाट खुलनेवाले दिन अक्षय तृतीया को भगवान् कृष्ण ने सूर्यपुत्री यमुना का वरण किया था। सूर्यपुत्री तथा शनि एवं यमराज की बहन यमुना मनुष्य को ग्रहजनित कष्टों से मुक्ति दिलानेवाली मानी जाती हैं। यमुनोत्री में स्थित ग्लेशियर और गर्म जल के कुण्ड पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र हैं। मन्दिर में दिव्य शिला है। माँ यमुना के दर्शन और पूजा के साथ ही दिव्य शिला की पूजा की जाती है। इसी शिला के पास से गुफानुमा द्वार से जल की एक पतली धारा बहती है, यही यमुना का उद्गम-स्थल है। इस पवित्र स्थल के पास सप्तऋषि कुण्ड एवं सप्तसरोवर है जिनमें तीर्थयात्री स्नान करके अपना जीवन धन्य करते हैं। प्रकृति का करिश्मा यहाँ स्थित सूर्यकुण्ड है। इसका जल इतना गरम है कि पोटली में डालकर चावल और आलू कुछ ही देर में पक जाते हैं। धर्मशास्त्रों के अनुसार कलियुग में यदि कोई मनुष्य यमुनोत्री तीर्थयात्रा करके माँ यमुना का पूजन-दर्शन करता है, तो उसे शनि व यम का भय कभी नहीं सताता।


गंगोत्रीधाम   


गंगा का अवतरण-स्थल होने के कारण यह स्थान गंगोत्री कहलाया। गंगा भारत की प्रमुख नदी है, जो हिमालय के पर्वतों से निकलकर पूर्व की ओर बहती हुई बड़े मैदानी इलाकों से गुजरकर बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है। पौराणिक मान्यताओं के आधार पर स्वर्ग से अवतरित होकर गंगा तीन धाराओं में विभाजित हो गईभागीरथी, अलकनन्दा, मन्दाकिनी। जो गंगा राजा भगीरथ के पीछे गई वह ‘भागीरथी' कहलायी। देवप्रयाग में ये नदियाँ एकत्रित होकर गंगा के नाम से जानी जाने लगीं। अपने पूर्वजों को शापमुक्त करने के लिए राजा भगीरथ ने यहीं पर तपस्या की थी। मान्यता है कि यहाँ उत्तरमुखी बहनेवाली गंगा के स्नान और पूजा-अर्चना करने से मनुष्य को पापों से मुक्ति मिलती है। उत्तरकाशी से गंगोत्री जानेवाले रास्ते में जगहजगह ऊँचाई से बहते हुए पानी के झरने, देवदार और चीड़ के सघन वृक्ष पर्यटकों को आनन्दित कर देते हैं। गंगोत्री में गंगा मैया का भव्य और विशाल मन्दिर है जिसमें मुख्य मूर्ति भगवती गंगा की है।



इसके अतिरिक्त यहाँ महालक्ष्मी, अन्नपूर्णा, जाह्नवी, सरस्वती, यमुना, भगीरथ जी और शंकराचार्य जी की मूर्ति प्रतिष्ठित है। साथ ही शिव व भैरव के मन्दिर हैं। एक विशाल शिला है जो भगीरथ शिला कहलाती है। अधिक सर्दी शुरू होने से पहले करीब नवम्बर महीने में देवी गंगा अपने निवासस्थान मुखवा गाँव चली जाती है और पुनः वैशाख द्वितीया के दिन वापस आती है एवं अक्षय तृतीया से मन्दिर के कपाट खुलने के साथ ही पूजा-अर्चना प्रारम्भ हो जाती है। गंगोत्री से 19 कि.मी. दूर स्थित गोमुख भागीरथी नदी का उद्गम-स्थल है। गंगोत्री से पहले बालशिव का प्राचीन मन्दिर है। इसे बाल कंडार मन्दिर के रूप में भी जाना जाता है। गंगोत्री धाम का प्रथम पूजा-स्थल यही है। गंगा माँ के दर्शन से पहले बाल शिव का दर्शन आवश्यक माना जाता है।


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