विवेकानन्द के मानसपुत्र सुभाष

आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय चअपनी मुक्ति और मानवता की सेवा के लिए ‘ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के दिन लद चुके हैं और अब शूद्र की बारी है, भविष्य पददलितों का है।'


आज इस बात से कम लोग ही परिचित हैंकि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के जीवन पर आरम्भिक काल से ही स्वामी विवेकानन्द की अमिट छाप थी। यह बात उनके स्वरचित साहित्य में स्पष्ट परिलक्षित होती है। सुभाष के ही शब्दों में, ‘मैं उनकी (विवेकानन्द जी) पुस्तकों को दिन-पर-दिन, सप्ताह-पर-सप्ताह और महीने-पर-महीने पढ़ता चला गया। उन्होंने प्राचीन ग्रंथों की आधुनिक व्याख्या की। वे अक्सर कहा करते थे कि उपनिषदों का मूलमंत्र है शक्ति। नचिकेता के समान हमें अपने आप में श्रद्धा रखनी होगी।' 



सुभाष किशोरावस्था के अपने अनुभव पर लिखते हैं कि मैं उस समय मुश्किल से पन्द्रह वर्ष का था, जब विवेकानन्द ने मेरे जीवन में प्रवेश किया। विवेकानन्द अपने चित्रों में और अपने उपदेशों के ज़रिये मुझे एक पूर्ण । विकसित व्यक्तित्व लगे। विवेकानन्द के द्वारा मैं क्रमशः उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस की ओर झुका।।


अपने स्कूल के जीवन में विवेकानन्द के प्रभाव के विषय में सुभाष बताते हैं कि शीघ्र ही मैंने अपने मित्रों की एक मण्डली बना ली, जिनकी रुचि रामकृष्ण और विवेकानन्द में थी। स्कूल में और स्कूल के बाहर जब कभी हमें मौका मिलता, हम इसी विषय पर चर्चा करते। क्रमशः हमने दूर-दूर तक भ्रमण करना आरम्भ किया, ताकि हमें मिल-बैठकर और अधिक बातचीत करने का अवसर मिले।


विवेकानन्द के भाषणों और पत्रों आदि के संग्रह छप चुके थे और सभी के लिए सामान्य रूप से उपलब्ध थे। परन्तु रामकृष्ण बहुत कम पढ़े-लिखे थे और उनके कथन उस प्रकार उपलब्ध नहीं थे। उन्होंने जो भी जीवन जिया, उसके स्पष्टीकरण का भार औरों पर छोड़ दिया। फिर भी उनके शिष्यों ने कुछ पुस्तकें और डायरियाँ प्रकाशित कीं, जो उनसे हुई बातचीत पर आधारित थीं और जिनमें उनके उपदेशों का सार दिया गया था। इन पुस्तकों में चरित्र- निर्माण के सम्बन्ध में सामान्यतः और आध्यात्मिक उत्थान के बारे में विशेषतः व्यावहारिक दिशा-निर्देश दिए गए हैं। रामकृष्ण परमहंस बार-बार इस बात को दुहराया करते थे कि आत्मानुभूति के लिए त्याग अनिवार्य है और सम्पूर्ण अहंकारशून्यता के बिना आध्यात्मिक विकास असम्भव है। 


सुभाष ने कटक से अपनी माँ प्रभावती देवी को इस सम्बन्ध में करीब नौ पत्र लिखे थे। ऐसे ही एक पत्र में वे लिखते हैं, 'संसार के तुच्छ पदार्थों के लिए हम कितना रोते हैं, किंतु ईश्वर के लिए हम अश्रुपात नहीं करते। हम तो पशुओं से भी अधिक कृतघ्न और पाषाण-हृदय हैं।'


इसी तरह 8 जनवरी, 1913 को अपने मझले भाई के नाम पत्र में उन्होंने लिखा थाभारतवर्ष की कैसी दशा थी और अब कैसी हो गई है? कितना शोचनीय परिवर्तन है। कहाँ हैं वे परम ज्ञानी, महर्षि, दार्शनिक। कहा हैंहमारे वे पूर्वज, जिन्होंने ज्ञान की सीमा का स्पर्श कर लिया था। सब कुछ समाप्त हो गया। अब वेदमंत्रों का उच्चारण नहीं होता। पावन गंगातट पर अब सामगान नहीं गूंजते, परंतु हमें अब भी आशा है कि हमारे हृदय से अंधकार को दूर करने और अनन्त ज्योतिशिखा प्रज्ज्वलित करने के लिए आशादूत अवतरित हो गए हैं। वे हैं- विवेकानन्द। वे दिव्य कान्ति और मर्मवेधी दृष्टि से युक्त हो संन्यासी के वेश में विश्व में हिंदू-धर्म का प्रचार करने के लिए ही आए हैं। अब भारत का भविष्य निश्चित ही उज्ज्वल है।


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