ईस्ट इण्डिया ट्रेलवे कम्पनी से इण्डियन रेलवेज तक का सफर

सन् 1840 का दशक सम्भाषण, चर्चा और कार्य के शुरू होने के इंतज़ार का समय था। हालाँकि रेलों ने सन् 1850 से पहले चलना शुरू नहीं किया था, पर दो प्रमुख रेलवे कम्पनियाँ अस्तित्व में आ चुकी थीं। सन् 1845 में 'ईस्ट इण्डिया रेलवे कम्पनी और सन् 1849 में 'ग्रेट इण्डियन पेनिनसुला रेलवे', जबकि मद्रास रेलवे कम्पनी थोड़ा विलम्ब यानी सन् । 1853 में बनी। इन विषयों पर चर्चाएँ आधिकारिक रिपोट्र्स, पत्र-व्यवहार, सर्वे और अखबारों के लेखों के माध्यम से होती थीं। इन चर्चाओं में ब्रिटिश और भारतीय- दोनों ही शामिल रहते थे तथा इनमें प्रमुख रुचि बम्बई और कलकत्ता को लेकर थी। सन् 1840 ब्रिटेन में रेलवे के उत्थान का युग था और यह अनियमित रेलवे-कंपनियों को दिए अतिनिवेश से संबंधित था तथा इसका असर भारत में भी दिखा। सन् 1844-47 के इंग्लिश रेलवे उन्माद को आम पृष्ठभूमि की रिपोर्ट के रूप में लन्दन द्वारा वहाँ के निवेशकों, प्रस्तावकों तथा ठेकेदारों ने प्रस्तुत किया था। इसका असर सन् 1840 में भारत के बम्बई और कलकत्ता पर भी पड़ा, जहाँ इस समय रेलवे पर गम्भीरता से चर्चा हो रही थी।



रेलवे के विकास के प्रमुख प्रस्तावक रोलैंड मैक्डॉनाल्ड स्टीफेंसन (18081895) और लार्ड डलहौजी (18121860) थे। स्टीफेंशन के दिमाग में भारत और कलकत्ता अधिक था। उनकी योजना चीन को कलकत्ता व हांगकांग से जोड़ने की थी। अपनी इसी योजना का समर्थन हासिल करने के लिए वे सन् 1859 में हांगकांग भी गए थे। सन् 1844 में जान चैपमैन (1801-1854) ने 'ग्रेट इण्डियन पेनिनसुला रेलवे' के लिए इसका पहला प्रस्ताव तैयार किया था और इसे समर्थन के लिए स्टीफेंसन ने भी हासिल किया था। जहाँ तक स्टीफेंसन का सवाल है, उन्होंने स्वयं ही सन् 1841 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी को अपना प्रथम निजी प्रस्ताव भेजा था, परन्तु इस प्रस्ताव को ‘बेकार' कहकर निरस्त कर दिया गया था। इसके उपरांत वे सन् 1843 में भारत सरकार के अधिकारियों के पास इस प्रस्ताव को लेकर पहुँचे थे। कलकत्ता में उन्होंने सन् 1844 में 'इंग्लिश मैन' में रेलवे की वकालत करते हुए एक लेख लिखा था। उनके इस प्रस्ताव में छह प्रमुख रेलपथ थे- 1. कलकत्ता से मिर्जापुर/दिल्ली, कोयला खदान से होते हुए फिरोजपुर तक; 2. बम्बई से मिर्जापुर को जोड़ते हुए; 3. बम्बई से हैदराबाद, कलकत्ता तक; 4. हैदराबाद से मद्रास; 5. मद्रास से बैंगलोर, मैसूर और कालीकट; 6. मद्रास से आरकोट, तिरुचिरापल्ली, तिरुनेलवेली होते हुए भारत के दक्षिण तक। यह योजना संभवतः सेना को ध्यान में रखते हुए या फिर कच्चे माल के निर्यात और तैयार माल के आयात को बढ़ावा देने के लिए की गई थी।


इस रूपरेखा को सैन्य एवं सुरक्षा की दृष्टि से पहली प्राथमिकता दी गई तथा दूसरी प्राथमिकता व्यावसायिक हितों के अनुसार है, जिसमें बंदरगाहों की नज़दीकियों को ध्यान में रखा गया है, ताकि यहाँ से कच्चे माल का निर्यात और ब्रिटेन से तैयार माल के आयात की सुविधा हो सके।


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