हँसाती-रुलाती भारतीय टेल

लगभग पचीस वर्शो तक दूरस्थ जनपद में नौकरी करने के कारण रेल यात्रा का एक ठीकठाक अनुभव रहा है या यूँ कहें कि जनरल और शयनयान कक्ष में यात्रा के दरम्यान एक बड़ा वक्त गुजरा। बारह-पन्द्रह घंटे की यात्रा में स्टेशन, प्लेटफॉर्म से लेकर बोगियों तक की धक्कमपेल, गर्दी, अधिकार-चिन्ता, बोगियों में घुसने की जुगत/तकनीक, सीटों पर आधिपत्य, मृदुलता से सीट पाने की कवायद, निष्ठुरता से आग्रह ठुकराने की कला.. जगह घेरने की कलाकारी, खिड़कियों से रुमाल या तौलिया फेंककर सीटों की कराई गई रजिस्टरी, महिलाओं और बच्चों का खिड़कियों से कराया जानेवाला प्रवेश, सीट के भीतर बोरा और सूटकेस घुसेड़ने की जल्दी, झट से अपर बर्थ पर चढ़कर फैलने की प्रवृत्ति।


थूकने का लालच/उल्टी करने का डर/हरियाली निहारते चलने की आदत के कारण विंडो सीट की तरफ लपकने की जल्दी, मैगजीन खोलकर एलीट वर्ग दिखाने का दिखावटीपन, हर वेंडर से खाद्य-पदार्थों का मूल्य पूछकर मन मसोसकर बैठने का दर्द, शौचालय तक पहुँचने के लिए की गई मशक्कत, पंखे के ऊपर जूतों को संतुलित करने की कला, ऐसी तमाम घटनाओं और मनोवृत्तियों का साक्षी रहा हूँ मैं।



भारतीय रेल को भारत की जीवन रेखा कहते हैं। इसलिए तो उसे एशिया के सबसे बड़े रेल-नेटवर्क का खिताब प्राप्त है। पिछले 165 वर्षों से जनता की सेवा में चौबीसों घंटे तत्पर, सबसे बड़े नियोक्ता के रूप में सोलह लाख कर्मचारियों का संगठन मामूली है क्या? उसके पास इतने कर्मचारी हैं कि चाहें तो वो अलग से तीसवें राज्य के रूप में एक रेल राज्य' की मांग कर सकते हैं।


वैसे भारतीय रेल दूर से देखने में भले ही दुबली-पतली दीखती हो, लेकिन उसके दिल में जितनी जगह है, शायद ही किसी परिवहन सेवा के अन्दर हो। प्लेटफॉर्म पर चाहे कितने भी यात्री खड़े हों, सबको पाँच मिनट के अंदर भीतर खींचकर बैठा या समा लेने की अद्भुत क्षमता है इसमें। यदि आप चढ़ने का साहस कर लें, तो ऐसा कोई कारण ही नहीं कि वह आपको जगह न दे दे, भले ही शौचालय में ही क्यों न बिठाये... बिठायेगी ज़रूर..! बहुत बड़ा और बरियार दिल होता है। भारतीय रेल का।।


भारतीय रेल के जनरल बोगी ऐसे लंगर की तरह हैं कि उन्हें पता ही नहीं होता कि अगले घंटे या स्टेशन पर कितने यात्री/परीक्षार्थी/प्रदर्शनकारी/भक्त हाथ में बोरा टांगे या नारा बुलंद किये उसकी राह जोह रहे हैं। स्टेशन पर खड़े होते ही ट्रेन से उतरने और चढ़नेवालों की धक्कमपेल देखने लायक होती है। घुसने के लिये ऐसी मजबूत पकड़, उतरने के लिए ऐसा अटूट आत्मविश्वास कि दूसरी परिवहन सेवा हो तो स्टेशन पर ही उसकी रीढ़ की हड्डी चटक उठे। लेकिन अपनी रेल एक बार सांस खींचकर सरकते-सरकते रफ्तार बना लेती है और छुकछुक-छुकछुक गीत गातेबजाते निकल पड़ती है अपनी पटरी पर।


बेहद सस्ते और रियायत दर पर लगभग बीस या तीस पैसे प्रति किलोमीटर की दर से यात्रा कराने की हिम्मत या कुव्वत सिर्फ भारतीय रेल के पास ही है। आज भी लोग सात रुपये में पच्चीस किलोमीटर का सफर तय करते हैं। वह बात अलग है कि उन्हें गर्मी के कारण सूखे हलक को तर करने के लिये चालीस रुपये में दो लीटर पानी खरीदना पड़ता है।


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