जिन्होंने दुर्घटनाओं का नैतिक दायित्व लेते हुए रेल मंत्री के पद से त्याग-पत्र दे दिया...

मूर्ति लहाण, पण कृति मोठी। मराठी की यह कहावत श्री लालबहादुर शास्त्री के व्यक्तित्व और कृतित्व पर पूरी तरह चरितार्थ होती है। शास्त्री जी कद में छोटे, किन्तु कृति में बड़े थे। श्री गोळवळकर गुरुजी ने उनसे एक बार कहा था कि भगवान् ने आपको शरीर तो छोटा किया है, किन्तु इसके द्वारा आपको बड़े काम करने हैं। सचमुच शास्त्री जी उसी छोटी-सी काया के बल पर, स्वल्प काल में ही, स्वतंत्र भारत के इतिहास पर अपनी अमिट छाप छोड़ने में समर्थ हुए।


मुझे वह दिन अच्छी तरह से याद है, जब 1952 के आम चुनाव के बाद प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने शास्त्री जी को अपने मंत्रिमण्डल में शामिल किया था और उन्हें रेल मंत्रालय का दायित्व सौंपा था। उन दिनों शास्त्री जी राज्यसभा के सदस्य थे। उल्लेखनीय बात यह है कि शास्त्री जी ने अपना पहला बजट लोकसभा में हिंदी में पेश किया था। इससे राष्ट्रभाषा के प्रति उनका प्रेम पूरी तरह प्रकट हुआ। यह बात अलग है कि हिंदी में बजट पेश करने के कारण शास्त्री जी को काफी विरोध का सामना करना पड़ा था। प्रतिपक्ष के कुछ सदस्य सदन से उठकर चले गए थे। बाद में शास्त्री जी ने हिंदी न जाननेवाले सदस्यों की भावनाओं का आदर करते हुए बजट पर हुई बहस का उत्तर अंग्रेजी में दिया। किन्तु, इस एकाकी घटना से उनके व्यक्तित्व के दो उत्कृष्ट पहलू उजागर हुए। प्रथम, वे  राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रेमी थे। दूसरे, वे सबको साथ लेकर चलने में विश्वास रखते थे। 



रेल मंत्री के नाते शास्त्री जी ने रेलयात्रियों, विशेषकर तीसरे दर्जे के यात्रियों के लिए विशेष सुविधाओं का प्रबन्ध करने पर ध्यान दिया। उन्होंने अपने दायित्व को भली-भाँति निभाने का प्रयास किया। किन्तु, जब रेल दुर्घटनाएँ बढ़ने लगीं और रेलप्रशासन उन्हें रोकने में विफल रहा, तो शास्त्री जी ने उन दुर्घटनाओं का नैतिक दायित्व अपने ऊपर लेते हुए रेल मंत्री के पद से त्याग-पत्र दे दिया। प्रधानमंत्री श्री नेहरू ने पहली बार उनका त्याग-पत्र स्वीकार नहीं किया, किन्तु जब शास्त्री जी ने दुबारा जोर दिया, तो त्याग-पत्र स्वीकार कर लिया गया। इस तरह श्री लालबहादुर शास्त्री ने स्वाधीन भारत के इतिहास में नया उदाहरण कायम किया। यदि वे चाहते, तो दुर्घटनाओं के लिए कर्मचारियों को या साज-समान को दोष देकर अपने दायित्व से बच सकते थे, किन्तु उन्होंने ऐसा करना उचित नहीं समझा। संसदीय लोकतंत्र में मंत्रालय की विफलता के लिए अंततोगत्वा उसके मंत्री को उत्तरदायी ठहराया जाता है। इस सिद्धान्त को शास्त्री जी अपने व्यवहार में लाए और उन्होंने भविष्य के लिए एक अनुकरणीय उदाहरण स्थापित कर दिया।


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