ज्योतिर्लिंग के साथ ही चार धामों में से एक है रामेश्वरम् तीर्थ

भारत में प्राचीन काल से ही तीर्थों की महत्ता रही है। इसी महत्त्व को बनाए रखने एवं विशाल भारतवर्ष को एकता के सूत्र में पिरोने के लिए परम पवित्र चार धामों की स्थापना चार दिशाओं में की गई है। उत्तर दिशा में हिमालय की गोद में बद्रीनाथ, पश्चिम में अरब सागर के समीप द्वारकापुरी, पूर्व में बंगाल के खाड़ी के समीप जगन्नाथपुरी तथा सुदूर दक्षिणी छोर पर हिंद महासागर को स्पर्श करता हुआ रामेश्वरम्। भौगोलिक दृष्टि से चार धाम एक परिपूर्ण वर्ग का निर्माण करते हैं जिसमें बद्रीनाथ और रामेश्वरम् एक देशांतर पर पड़ते हैं एवं द्वारका और जगन्नाथपुरी एक ही अक्षांश पर पड़ते हैं। रामेश्वरम् हिंदुओं के सभी पवित्र तीर्थों में से एक है तथा प्रकृति की सुन्दरता के साथ-साथ यह तमिलनाडु के रामनाथपुरम् जिले में स्थित एक विशालकाय और भव्य मन्दिर है। इस श्रीरामनाथस्वामी मन्दिर में स्थापित शिवलिंग, द्वादश ज्योतिर्लिंगों में परिगणित है। पुराणों में रामेश्वरम् का नाम गंधमादन बताया गया है। रामेश्वरम् चेन्नई से लगभग 560 किमी. दक्षिण-पूर्व में हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी से चारों ओर से घिरा हुआ एक सुन्दर शंख के आकार का द्वीप है। काफी समय पूर्व यह द्वीप भारतभूमि से जुड़ा हुआ था, परन्तु बाद में सागर की लहरों ने भारत और द्वीप के भूमि रास्ते को काट डाला, जिससे वह चारों ओर पानी से घिरकर टापू बन गया। रामेश्वरम् जाने के लिए कंक्रीट के 145 स्तम्भों पर टिका करीब सौ साल पुराना सेतु है। रामेश्वरम् जानेवाले लोग इस सेतु से होकर गुजरते हैं। समुद्र के बीच से निकलती रेल का दृश्य बहुत ही रोमांचक होता है। इस सेतु के अलावा सड़क-मार्ग से जाने के लिए एक और सेतु भी बनाया गया है। यहाँ दर्शन के लिए देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु आते हैं। द्रविड़-शैली में बना यह मंदिर, मन्दिर- निर्माण कला और शिल्प कला की सुंदरता का प्रतीक है। रामनाथस्वामी मन्दिर का गलियारा विश्व का सबसे बड़ा गलियारा है।



ऐसा कहते हैं शास्त्र ।


भगवान् राम ने लंका पर चढ़ाई करने से पूर्व नल एवं नील नामक दो बलशाली वानरों की सहायता से यहाँ पत्थरों से सेतु का निर्माण करवाया था, जिसे 'श्रीरामसेतु' कहा गया। जी हाँ, वही श्रीरामसेतु, जिसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 'एडम्स ब्रिज' के नाम से जाना जाता है। नल और नील को एक ऋषि का शाप था कि तुम दोनों जिस वस्तु को भी पानी में फेंकोगे, वह नहीं डूबेगी। यही शाप, सेतु बनाते समय भगवान् राम के वरदान सिद्ध हुआ। वे दोनों वानर पत्थरों को जल में डालते गए और एक विशाल सेतु का निर्माण हो गया जिस पर चढ़कर वानर सेना लंका पहुँच गयी। बाद में श्रीराम ने विभीषण के अनुरोध पर धनुषकोटि नामक स्थान पर इस सेतु का प्रस्थान-बिन्दु तोड़कर उसे मुख्य भूमि से अलग कर दिया था। आज भी इस 30 मील (48 कि.मी.) लम्बे सेतु के अवशेष सागर में दिखाई देते हैं। रामनाथस्वामी मन्दिर में ये पत्थर आज भी भक्तों के दर्शन के लिए रखे गए हैं। वाल्मीकीय-रामायण के अनुसार इस मन्दिर में जो शिवलिंग है, उसके पीछे मान्यता यह है कि जब मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम सीताजी को रावण से छुड़ाने के लिए लंका जा रहे थे, तब उन्हें रास्ते में प्यास लगी। जब वे जल पीने लगे, तभी उनको याद आया कि उन्होंने भगवान् शंकर के दर्शन नहीं किए हैं, ऐसे में वे कैसे जल ग्रहण कर सकते हैं। तब श्रीराम ने विजयप्राप्ति के लिए बालू का शिवलिंग स्थापित करके शिव पूजन किया था, क्योंकि भगवान् राम जानते थे कि रावण भी शिव का परम भक्त है और युद्ध में हरा पाना कठिन कार्य है, इसलिए उन्होंने लक्ष्मण सहित शिवजी की आराधना की और भगवान् शिव प्रसन्न होकर माता पार्वती के साथ प्रकट हुए एवं श्रीराम को विजयी होने का आशीर्वाद दिया। भगवान् राम ने शिवजी से लोककल्याण के लिए उसी स्थान पर शिवलिंग के रूप में सदा के लिए निवास करने को कहा जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया।


इतिहास, शोभायात्रा और मणि-दर्शन


मन्दिर में विशालाक्षी के गर्भगृह के निकट ही नौ शिवलिंग हैं। मान्यता है कि इन्हें लंकापति विभीषण द्वारा स्थापित किया गया था। रामनाथस्वामी मन्दिर में जो ताम्रपट है, उससे पता चलता है कि 1173 ई. में श्रीलंका के राजा पराक्रमबाहु ने मूल लिंगवाले गर्भगृह का निर्माण करवाया था। तब वहाँ अकेले शिवलिंग ही थे, साथ में देवी की मूर्ति नहीं रखी गई थी। तब इस कारण यह निःसंगेश्वर का मन्दिर भी कहलाया। यही मूल मन्दिर कालांतर में अनेक राजाओं के सहयोग से वर्तमान दशा में पहुँचा है। मन्दिर के समक्ष एक बड़ा स्वर्णमण्डित स्तम्भ है और उसी के निकट 13 फीट ऊँची, 8 फीट चौड़ी नन्दे की भी बहुत सुन्दर प्रतिमा है। शिव और पार्वती की चल प्रतिमाओं की प्रत्येक वर्ष शोभायात्रा निकाली जाती है। इस मौके पर सोने और चाँदी के वाहनों पर भगवान् शिव और पार्वती को विराजित करके उनकी सवारी निकाली जाती है। इस समय ज्योतिर्लिंग को श्वेत उत्तरीय और चाँदी के त्रिपुण्ड्र से सजाया जाता है। यहाँ की मान्यतानुसार सागर में स्नान कर ज्योतिर्लिंग पर गंगाजल चढ़ाने का बहुत महत्त्व है। सुबह 4 बजे से 6 बजे के बीच मणि-दर्शन कराया जाता है। मणि दर्शन में स्फटिक के शिवलिंग के दर्शन कराए जाते हैं जो एक दिव्य ज्योति के रूप में दिखाई देते हैं। बड़ी संख्या में श्रद्धालु, बाबा भोले के मणि-दर्शन कर अपने जीवन को धन्य समझते हैंशिवपुराण के अनुसार रामेश्वरम् में दर्शनमात्र से ब्रह्महत्या-जैसे पाप दूर हो जाते हैं। 24 कुओं की महिमा ।


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