सबसे रेल ही भली

सुनते हैं कि शेषनाग पूरी पृथिवी को नते हैं कि शेषनाग पूरी पृथिवी को अपने फनों पर धारण किए हुए हैयह किंवदन्ती कितनी सही है या ग़लत, पर यह एकदम सच है कि भारतीय रेल पूरे देश को न केवल सम्भाले हुए है बल्कि देश को एक छोर से दूसरे छोर तक बांधे हुए है। न केवल आबादी, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था तक रेल के ही सहारे टिकी हुई है। चाहे रेलगाड़ी हो या मालगाड़ी- सभी को ढोने में माहिर है। पटरी चाहे छोटी हो या बड़ी, रेल हर जगह अपनी पटरी बिठा लेती है। प्लेटफॉर्म पर एक भी यात्री नहीं छोड़ती, हर एक को उसके गन्तव्य तक पहुँचाकर ही दम लेती है।


जब रेल चलती है, तो यात्रियों में होड़ मच जाती है। जो डिब्बे में प्रवेश नहीं कर पाते, वे खिड़कियों के रास्ते आजमाते हैं। जो उसमें भी असफल हो जाते हैं, वे डिब्बों की छत पर चढ़कर बैठ जाते हैं, गरचे यह कि रेल अपने चाहनेवालों को कभी निराश नहीं करती। रेलम-पेल का मुहावरा रेल के चाल चलन से ही निकला है।



रेल कौतूहल की चीज़ पहले भी थीऔर अब भी है। बच्चों की ‘छुक-छुक रेल' के खेल से लेकर रेल आयी ! रेल आयी!!' की धमा-चौकड़ी के साथ दौड़कर रेलगाड़ी देखने की जिज्ञासा आज भी बरकरार है। राजा हो या रंक, अमीर हो या रईस, बाबू हो या साहेब, रेल ने कभी किसी का दिल नहीं तोड़ा और न ही कभी किसी को बैठाने से ना की।


रेल ने बिना किसी भेदभाव के सभी को अपनी औकात में रखा। शुरू में इंटर क्लास, सेकंड क्लास और फर्स्ट क्लास हुआ करते थे। अब स्लीपर कोच, थर्ड ए.सी., सेकंड ए सी तथा फर्स्ट ए.सी. के डिब्बे हैं, लेकिन जनरल डिब्बे को रेल अब भी बनाए हुए है, पूरी समरसता के साथ।


सामाजिक समरसता के मामले में रेलवे का तो कोई जवाब नहीं। आरक्षण को लेकर पूरे देश में भले ही भारी विरोध हो, पर पूरी रेल में एक भी यात्री खोजे नहीं मिलेगा जो रेल-यात्रा में आरक्षण का पक्षधर न हो। सभी जताते हैं कि जिस बर्थ पर वे बैठे हैं, वह बर्थ सचमुच उनके बाप की है और जिन्होंने ज्यादा पैसे देकर अपनी बर्थ रिज़र्व करा रखी है, उनका तो कहना ही क्या! ऐसे में अगर एम.एस.टी. होल्डर रिज़र्व डिब्बे में घुस । आते हैं और आरक्षित बर्थों पर सोनेवालों को उठाकर बैठ जाते हैं तो वे उन्हें आतंकवादी से कम नज़र नहीं आते। रेल का इतिहास साक्षी है कि आरक्षणविरोधियों ने कभी भी रेल के आरक्षण को निशाना नहीं बनाया। जितने भी आरक्षण-विरोधी आंदोलन हुए हैं, उनमें से कोई भी चलती रेल के अंदर नहीं हुए। यहाँ तक रेल रोको आंदोलन' में भी रेल की यात्रा करनेवाला उसमें भाग लेता नहीं दिखाई दिया। रेल रोको । आंदोलनकारियों के प्रणेता समाजवादियों ने भी हमेशा ‘एक पाँव रेल में और दूसरा पाँव जेल में अपने सरकार-विरोधी आंदोलन बिना टिकट रेल में ही बैठकर निपटाए। यही नहीं, रेल का चक्का जाम करनेवालों में एक भी यात्री शामिल होते नहीं दिखाई देता। उल्टे उन्हें कोसते हुए ही नज़र आता है। चाहे चौरी चौरा का। आंदोलन रहा हो या काकोरी का डकैतीकाण्ड- सभी को चर्चा में लाने का श्रेय रेल को रहा है।


दिलचस्प बात यह है कि रेल जिस इलाके से गुजरती है, वहाँ की संस्कृति में अपने को ढाल लेती है, चाहे खान-पान की बात हो या भाषा की अथवा आपसी सद्भाव की, किसी भी मामले में रेलवालों का जवाब नहीं। रेल सभी को लेकर चलती है। बिहार से गुजरनेवाली ट्रेनें बिहारमय हो जाती हैं। यही वह इकलौता प्रदेश है जहाँ रेल की आरक्षण-व्यवस्था धरी-की-धरी रह जाती है। 


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