सर्वसिद्धिप्रद कुम्भ पर्व

कुम्भ का आशय है घड़ा, जलपात्र, यतः पृथिवी को कुम्भ से (कुम्भ ) में स्थित जल से पूरित किया जाता है (सिञ्चित किया जाता है), अतएव इसे कुम्भ कहा जाता है (संस्कृत-हिंदी शब्दकोश, वामन शिवराम आप्टे, के भूमिं कुत्सिंत वा उम्भति पूरयति, पृ. 285)। हाथी के मस्तक को ‘गजकुम्भ' कहा गया है। राशिचक्र में ग्यारहवीं राशि का नाम कुम्भ है। मनुस्मृति (8.320) में बीस द्रोण के बराबर तौल को कुम्भ नाम दिया गया है। कुम्भ (कुम्भक) योगदर्शन में प्राणायाम का एक प्रकार है, जिसमें दाहिने हाथ की अंगुलियों से दोनों नथुने और मुख बन्द करके सांस रोका जाता है। वेश्या के प्रेमी को कुम्भ कहा गया है। (आप्टे, पूर्वोद्धृत, पृ. 284)। रावण का भाई कुम्भकर्ण प्रसिद्ध ही है। वाल्मीकीय- रामायण (5.79.15) में कुम्भकर्ण के पुत्र का नाम कुम्भ बताया गया है



सुतोऽथ कुम्भ कर्पास्य कुम्भः परम कोपनः।


अब्रवीत् परमक़द्धो रावणं लोकरावणम्॥


महाभारत में प्रह्लाद के एक पुत्र को कुम्भ कहा गया है


प्रह्लादस्य त्रयः पुत्राः ख्याताः सर्वत्र भारत।


विरोचनश्च कुम्भश्च निकुम्भश्चेति भारत॥


महाभारत, आदिपर्व, 65.19 यहीं पर विष्णु के लिए 'कुम्भ' शब्द का प्रयोग किया गया है- अर्चिष्मानर्चितः कुम्भे विशुद्धात्मा विशोधनः (वही, अनुशासनपर्व, 149.81)। कुम्भज अगस्त्य, वसिष्ठ तथा द्रोण के लिए प्रयुक्त होता है। कुम्भ का एक पर्यायवाची शब्द है। कलश। इसका बहुधा प्रयोग होता है। हलायुध कोश (पृ. 210) में कहा गया है। कि यतः जलपूरण के समय अत्यन्त मधुर अव्यक्त-सा शब्द उच्चारित होता है (ध्वनि उत्पन्न होती है) अतएव इसे कलश कहा जाता है- कलं मधुराव्यक्तशब्दं शवति जलपूरण समये प्राप्नोति। यहाँ पर कलश शब्द के पर्याय दिये गये हैं, यथा- घट, कुट, निप, कलस, कलसि, कलसी, कलसं, कलशिः, कलशी, कलशं कुम्भ, करीर, कर्करी, करकः, गर्गरी आदि।


धार्मिक कार्यों मे कलश-स्थापना का विशेष स्थान होता है। इस अवसर पर वरुणदेव की पूजा की जाती है। वरुण जल के देवता कहे गये हैं। विवाह, मूर्तिस्थापना आदि के समय एक या अधिक से अधिक एक सौ आठ कलशों की स्थापना की जाती है। कलश के आकार के विषय में कहा गया है कि कलश की परिधि पन्द्रह अंगुल से पचास अंगुल तक, ऊँचाई सोलह अंगुल तक, तली बारह अंगुल और मुँह आठ अंगुल चौड़ा होना चाहिए। कलश को कलस भी कहा जाता है; क्योंकि यह 'क' (जल) से लस (सुशोभित) होता है। (केन लसतीति)। कालिकापुराण (पुष्याभिषेक, अध्याय 87) में कलस की उत्पत्ति और इसके धार्मिक तथा आध्यात्मिक महत्त्व पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है, तदनुसार जब देवता और असुरों द्वारा अमृतप्राप्ति के लिए सागर-मन्थन हो रहा था तथा तब अमृत (पीयूष) के धारण हेतु (रखने के लिए) कलश का निर्माण विश्वकर्मा द्वारा किया गया। यतः यह देवताओं की अलग-अलग कलाओं को एकत्र करके यह बना था, इसलिए यह कलश कहलाया


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