अंकविद्या, गणित, ज्योतिष का उद्गम-स्थत भारत

लगभग साढे चार हजार साल पुराना लघु महाकाव्य ‘गिलगमेश' तक अपने एकदेव (शमस् (सूर्य) नायक गिलगमेश का आराध्य है) उपासना के कारण परिवर्ती लगता है। वेद और उसके अनुयायी आर्य, संसार की प्राचीनतम् संस्कृति के वाहक रहे, जिन्होंने मात्र अध्यात्म में ही नहीं, गणित, में भी विश्व को अमूल्य रत्न दिये। गणित विज्ञान का उद्घाटक है और उसका भरण-पोषण करनेवाला भी। जॉर्ज विल्हेल्म फ्रेडरिक हेगेल (1770- 1831) आर्य ऋषिगणों को ही बीजगणित का रचनाकार मानते हैं। सर विलियम जोन्स (1746-1794) ने अपने शोध-कार्यों में ईसा पूर्व हिंदुओं में प्रचारित ज्योतिषविद्या का उल्लेख किया है। विख्यात स्कॉटिश विद्वान् जॉन प्लेफेयर (1748-1819) ने भी ज्योतिष का मूल स्रोत भारत को माना है। फ्रांसीसी विद्वान् पियरे साइमन लाप्लेस (1749-1827) गणित, खगोल पर उनका काम आज भी अपनी विशालता से चमत्कृत करता है। ईश्वर को कल्पना और स्वयं को उसकी ज़रूरत न समझनेवाले इस वैज्ञानिक ने भी अंकविद्या, गणित और ज्योतिष का मूल उत्स भारत में निहित बताया है। इन विद्वानों का विवरण यहाँ मात्र इस हेतु दिया ताकि सनद रहे कि मैंने पश्चिम का दर्शन पढ़ा है। इसके बाद भी मेरे तर्क विशुद्ध आर्य साहित्य से होंगे; क्योंकि मुझे भरोसा है वे मुझे भ्रमित नहीं करेंगे। 



पुरातन शिलालेखों तथा मोहनजोदड़ो में मिले लेखों, सिक्कों से यह स्पष्ट पता चलता है मिस्र, यूनान, आदि देशों से बहुत पहले भारतवासी संख्याओं को अंकों में लिखते थे। उनके द्वारा शून्य से लेकर शतोत्तर की गणना आज भी विश्व को कृतकार्य किए हुए है। शून्य और बड़ी गणना को लिखने की आधुनिक प्रणाली आर्यों द्वारा विश्व को महानतम देन है। उदाहरणार्थ फिनिशियन रीति से 9 को ।।। ।।।।।। नौ लम्बी लकीरों द्वारा लिखते थे, 10 को इस चिह्न से---/,19 को लिखने के लिये ।।।।।।।।।.......\40 को लिखने का चिह्न था HH और 90 को...... HHHH।


आर्यों का लेखनकर्म सबसे पुराना है। इसका प्रबल उदाहरण है, वसिष्ठधर्मसूत्र में लिखित पत्रों को कानूनी गवाही माना गया है। आपको भली-भांति स्मरण होगा ऋग्वेद का वह मंत्र, जिसमें कहा गया है- मुझे एक सहस्र गाय दो जिसके कान में आठ लिखा हो- सहस्रं मे ददतो अष्टकर्त्यः (10.62.7)। पाणिनि (700 ई.पू., युधिष्ठिर मीमांसक ने 2900 वि.पू. माना है, उनके तर्क स्तब्ध करनेवाले, वे प्रणम्य हैं) ने अपने व्याकरण में विभिन्न लिपिकों का वर्णन किया है। सम्राट् अशोक के शिलालेखों में संख्या टंकित है। यजुर्वेद के अध्याय 17 का मंत्र 2 बड़ा महत्त्वपूर्ण है। इसमें एक पर 12 शून्य 1000000000000 यानी दश खरब तक की संख्या उपलब्ध हैइमा मेऽग्नऽइष्टका


इमा मेऽग्नऽइष्टका धेनवः सन्त्व् एका च दश च दश च शतं च शतं च सहस्रं च सहस्रं चायुतं चायुतं च नियुतं च नियुतं च प्रयुतं चार्बुदं च न्युर्बदं समुद्रश् च मध्यं चान्तश् च परार्धश् चैता मे ऽअग्न इष्टका धेनवः सन्त्व् अमुत्रामुष्मिंल् लोके॥


तैत्तिरीयसंहिता, मैत्रायणी, काठक आदि में इसी तरह दीर्घाकार संख्याओं का वर्णन है। वैदिक साहित्य में इस तरह की विस्तृत संख्या रोमांचपूर्ण गौरवाभाष देती हैं। ललितविस्तर नामक बौद्ध-ग्रंथ में गौतम बुद्ध (निर्वाणकाल : 1807 ई.पू. गुंजन अग्रवाल के अनुसार, उनका शोध सर्वमान्य है) गणितज्ञ अर्जुन के मध्य वार्तालाप में बोधिसत्व 100 के ऊपर संख्या का निम्न वर्णन करते हैं- 100 कोटि = अयुत, 100 अयुत = नियुत, 100 नियुत = कंकर, 100 कंकर = विवर, 100 विवर = क्षोम्य, 100 क्षोम्य = निवाह, 100 निवाह = उत्संग, 100 उत्संग = बहुल, 100 बहुल = नागबाल, 100 नागबाल = तितिलम्ब प्रभृति और उनकी अंतिम संख्या है तल्लाक्षण- 10 पर 53 शून्य। जैनग्रंथ अनुयोगद्वारसूत्र में भी गणना असंख्य तक की गई है। प्रथम शताब्दी ई.पू. का यह ग्रंथ 10 पर 140 शून्य की संख्या प्रस्तुत करता है। जिन आर्कमिडीज (287-212 ई.पू.) को पाश्चात्य सभ्यता, भौतिकशास्त्री, अभियंता, आविष्कारक और खगोलशास्त्री के रूप में जनक की संज्ञा दी गई, उनके बहुत पहले संख्याओं के असंख्य मान उपलब्ध थे।


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