बदी सदृश्य तीर्थं न भूतो न भविष्यति

नर और नारायण पर्वत-श्रृंखलाओं की गोद में, अलकनन्दा नदी की बायीं तरफ़ बसे आदितीर्थ बद्रीनाथ न सिर्फ श्रद्धा व आस्था का अटूट केंद्र है, बल्कि अपने अद्वितीय प्राकृतिक सौन्दर्य से भी पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। यह तीर्थ हिंदुओं के चार प्रमुख धामों में से एक है। यह पवित्र स्थल भगवान् विष्णु के चतुर्थ अवतार नर-नारायण की तपोभूमि है। इस धाम के बारे में कहावत है कि जो जाए बद्री, वो न आए ओदरी यानि जो व्यक्ति बद्रीनाथ के दर्शन कर लेता है, उसे माता के उदर (गर्भ) में दुबारा नहीं आना पड़ता, प्राणी जन्म और मृत्यु के चक्र से छूट जाता है। ऋषिकेश से यह धाम 296 कि.मी. उत्तर दिशा में अवस्थित है। यह ‘पञ्च बद्री' में से एक बद्री भी है। उत्तराखण्ड में पञ्च बद्री, पञ्च केदार तथा पञ्च प्रयाग पौराणिक व धार्मिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। भगवान् नारायण के वास के रूप में जाना जानेवाला बद्रीनाथ धाम आद्य शंकराचार्य की कर्मस्थली रहा है। यह भी माना जाता है कि आद्य शंकराचार्य ने यहाँ मन्दिर का निर्माण करवाया था। मन्दिर के वर्तमान प्रारूप का निर्माण 16वीं शती में गढ़वाल के राजा ने करवाया था। पहले मन्दिर के पुजारी शंकराचार्य के वंशज हुआ करते थे, जिनको ‘रावल' कहा जाता था। सन् 1939 से पूर्व श्रीबदरीनाथ मन्दिर के समस्त अधिकार रावल के पास होते थे। परन्तु सन् 1939 में अंग्रेजी सरकार एवं तत्कालीन महाराजा टिहरी द्वारा ‘श्रीबद्रीनाथ मन्दिर समिति का गठन श्री बद्रीनाथ एवं इनके अधीनस्थ मन्दिरों के रखरखाव तथा प्रबंधन के उद्देश्य से किया गया। अब इनका प्रबन्धन ‘श्रीबदरीनाथ-केदारनाथ मन्दिर समिति करती है।



बद्रीनाथ मन्दिर में भगवान् विष्णु की ध्यानमुद्रा में सुशोभित एक मीटर ऊँची काले पत्थर (शालिग्राम) की प्रतिमा है। यह मन्दिर तीन भागों गर्भगृह, दर्शनमण्डप और सभामण्डप में बँटा हुआ है। मन्दिर-परिसर में अलग-अलग देवी-देवताओं की 15 मूर्तियाँ विराजमान हैं। अक्षय तृतीया पर जब बद्रीनाथ के कपाट खुलते हैं, उस समय भी मन्दिर में एक दीपक जलता रहता है। इस दीपक के दर्शन का बड़ा महत्त्व है। मान्यता है कि 6 महीने तक बंद दरवाजे के अंदर इस दीप को देवता जलाए रखते हैं। हिमालय की तलहटी में बसे बद्रीनाथ धाम को ‘धरती का वैकुण्ठ' कहा जाता है।


बद्रिकाश्रम यानि बद्री सदृश्यं तीर्थं न भूतो न भविष्यति अर्थात् बद्रीनाथ जैसा स्थान मृत्युलोक में न पहले कभी था न भविष्य में होगा। माना जाता है कि भगवान् विष्णु विग्रह रूप में यहाँ तपस्यारत हैं। यहाँ के दिव्य दर्शन करने पर मेरा अनुभव है कि भगवान् विष्णु के विग्रह को एकटक निहारने पर ऐसी अनुभूति होती है जैसे सामने साक्षात् । क्षात् भगवान् विष्णु हों। मन आनन्द से भावविभोर हो उठता है। यहाँ वनतुलसी की माला, चने की कच्ची दाल, गिरी का गोला और मिश्री । आदि का प्रसाद चढ़ाया जाता है। वनतुलसी की महक से पूरा माहौल सुरभित हो जाता है। इस मन्दिर का कई रंगों से बना प्रवेशद्वार दूर से ही पर्यटकों को आकर्षित करता है, जिसे ‘सिंह द्वार' भी कहा जाता है। मन्दिर के निकट बनी व्यास और गणेश की गुफाएँ भी अति सुन्दर हैं। यहीं बैठकर वेदव्यास जी ने महाभारत की रचना की थी। माना जाता है कि पाण्डव, द्रौपदी के साथ इसी रास्ते होकर स्वर्ग गए थे। मन्दिर के पास ही गरम पानी के कुण्ड (तप्त व नारद कुण्ड) हैं जिनमें श्रद्धालु नहाकर फिर दर्शन का लाभ उठाते हैं। इन कुण्डों में सल्फर की मात्रा अधिक होने से यहाँ नहाने पर त्वचा-सम्बन्धी परेशानियों से छुटकारा मिल जाता है।


यहाँ से तीन किलोमीटर की दूरी पर माणा गाँव इण्डो-तिब्बत सीमा पर पड़नेवाला आखिरी गाँव है। यहाँ पर 400 फीट की ऊँचाई से गिरनेवाला वसुधरा जलप्रपात पर्यटकों को अपनी बूंदों से भिगोकर उनका स्वागत करता है। बद्रीनाथ धाम में ब्रह्मकपाल तीर्थ है जहाँ शिव को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति मिली थी। यहाँ पितरों को पिण्ड-तर्पण दिया जाता है। भगवान् बद्रीविशाल के मन्दिर-परिसर में ही माँ लक्ष्मी का मन्दिर है, बद्रीविशाल के दर्शन के उपरांत यहाँ भक्त माँ लक्ष्मी के चरणों में शीश झुकाकर उनसे आशीर्वाद लेते हैं।


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