भारतीय ज्योतिष की अमूल्य देन : घाघ और भइटी की कहावतें

प्रान्तीय लोकजीवन की स्थानीय भाषाओं में ज्योतिष-ज्ञान के अनेक व्यावहारिक सूत्र लोक- स्मृतियों में संग्रहीत हैं। भारत कृषिप्रधान देश है और कृषि का मुख्य आधार है। वर्षा- पर्जन्यादन्नसम्भवः। समुचित वर्षा होने पर ही अन्न की उपज ठीक से हो सकती है। अतः वर्षा कब होगी, होगी या नहीं होगी, कितनी मात्रा में होगी, इसका ज्ञान होना कृषि-कर्म के लिए बहुत आवश्यक है। यह विषय ज्योतिष के तीन स्कन्धों में मुख्य रूप से संहिता स्कन्ध के अंतर्गत वर्णित है। आचार्य वराहमिहिर ने बृहत्संहिता में तथा उसके टीकाकार भट्टोत्पल ने भट्टोत्पली में इस विषय पर बहुत विचार किया है। लेकिन अशिक्षित किसान इन सब बातों को कैसे जाने. सम्भवतः इसी समस्या के निदान के लिए लोकभाषा में कहावतों के रूप में सूक्तियों का प्रादुर्भाव हुआ और इन्हीं कहावतों, जिनमें भविष्यवाणियाँ रहती हैं, के आधार पर ग्रामीण अञ्चल में खेती एवं सामाजिक समस्याओं का निदान करने की सुदीर्घ परम्परा रही है।



इन भविष्यवाणियों के जनक के रूप में डाक, भड्री, भडली, खाना तथा घाघ का नाम अत्यंत प्रसिद्ध हैं। 11वीं से 17वीं शताब्दी के मध्य इन भविष्यवाणी कहावतों का प्रवर्तन किया गया, जिनके मूल रूप में आज भी ग्रामीण अञ्चलों में देखने को मिलता है, जो मौसम-ज्ञान तथा शुभाशुभ वैचारिक अनुभूति पर आधारित है।


घाघ जहाँ खेती, नीति एवं स्वास्थ्य सेवामी जुड़ी कहावतों के लिए विख्यात हैं, वहीं भडली या भट्टरी की रचनाएँ वर्षा, ज्योतिष के लिए प्रसिद्ध हैं। इस विषय पर मैंने कई दिनों के अध्ययन में पाया कि भड्डुली और डाक का महत्त्वपूर्ण स्थान है। लेकिन यह अभी तक उपेक्षित ही रहा। हस्तलिखित पाण्डुलिपियों के रूप में अनेक प्रतियाँ जैन-भण्डारों में ‘भट्टली' नामक ग्रंथ के रूप में संग्रहित हैं। इनमें लोकसाहित्य के रूप में डक्क या डाक और भड्डुली के पद्य या वाक्य काफी प्राचीन हैं। ये पद्य ताड़पत्रों पर लिखे गए हैं। जैसे शकुन-विचार, भूमिज्ञान-विषयक यह पद्य इस प्रकार है।


सुकून विचार


वाम सियाल होई सुह


दाहिण दुक्ख करई।


पिट्टद्विय बीहामणी


, अग्गठ्ठिय मारेई॥


सेवामी हो विणु दाहिणी,


जई सूयटि गच्छेई।


तो आमरण विभूसिया,


ककवितिय दावेई॥


भूमिज्ञान


रक्तु खणेविण पूरिचई,


जई मट्टी वडडेइ।


निद्धा भूमि सलक्खणी,


फलु निवसतह देई॥


दर-उद्देही-कोलिय-किमि-कीड़ा-अली


सप्प।


रक्खस भूमि भयावणी


,घरि न वसिज्जइ क(ब)प्प॥


भड्ली के ये पद्य 11वीं से 13वीं शताब्दी के प्राकृत-भाषा के पद्य प्रतीत होते हैं। 


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