खगोलविज्ञान के विकास की झलक

समय और कैलेण्डर


ऐसी कौन-कौन सी परिस्थितियाँ रही होंगी जिनके कारण हमारे आदि पूर्वजों ने दिन को घंटों-मिनटों में बाँटा, कैलेण्डर बनाया और आकाश में स्थित सूरज, चाँद तथा सितारों के बारे में सोचने को मजबूर किया? मानव सभ्यता के विकास के प्रारम्भिक चरण में जब लोगों को अंक और गणित की जानकारी नहीं थी, तब उनको सर्वाधिक परेशान करनेवाला प्रश्न क्या रहा होगा? शायद रात के समय आनेवाला विचार कि, रोशनी कब होगी? एक बार खाने से भूख कितनी देर तक शान्त रहती है; दिन में आनेवाला विचार कि कितनी देर बाद रात हो जाएगी, और इन जैसे अन्य। इन प्रश्नों को हल करने के लिए दिन-रात को घंटा-मिनट में विभाजित करने का प्रयास किया गया। दिन डूबने का पूर्वानुमान लगाना दैनिक क्रियाकलापों एवं सुरक्षा के लिए बहुत आवश्यक था। सूरज आसमान में कितना ऊपर चढ़ चुका है, यह देखकर दिन के बाकी समय का अनुमान लगाया जाने लगा। बाद में धूपघड़ी की सहायता ली गयी। प्रकाश की कमीवाले समय (धूप न होने पर, विशेषकर रात में) को बराबर टुकड़ों में बाँटना बहुत चुनौतीपूर्ण था, इसके लिए जलघड़ी का सहारा लिया गया।



किसी का जीवन लगभग कितना और बचा है? फसलों के बीज बोने का उचित समय कब आता है? धान की अगली फसल का कितना इंतजार करना होगा? या जब पहली बार किसी बच्चे ने बुजुर्ग से पूछा होगा कि पेड़ पर आम दुबारा कब लगेंगे, तो उत्तर देने में बहुत कठिनाई आई होगी। मौसमों के बार-बार लौटकर आने की पहेली, मौसमीय प्रभावों से बचने के संबंध में सर्दी-वर्षा-ओले गिरने का पूर्वानुमान, उजली एवं अंधेरी रातों के सन्दर्भ में पूर्णिमा तथा अमावस्या के पूर्वानुमान-जैसी परिस्थितियों ने मनुष्य को एहसास कराया कि कुछ अवधि बाद ये घटनाएँ पुनः घटती हैं। ये कितने समय के अंतराल पर घटित होती हैं, यह जानने के लिए उसने दिनों की गणना एवं कैलेण्डर का निर्माण किया।


कैलेण्डर के निर्माण तथा समय की गणना में काफी पहले सफलता मिल जाने के बाद भी कुछ प्रश्न आधुनिक काल तक पहेली ही बने रहे, जैसे- सर्दियों में धूप कम तापमान वाली क्यों हो जाती है? चंद्रमा की रोशनी कभी बहुत अच्छी, तो कभी एकदम कम क्यों हो जाती है? उगता और डूबता सूरज लाल और दोपहर का चकाचौंध भरा और सफेद क्यों दिखाई देता है? चंद्रमा का आकार घटता-बढ़ता क्यों है और उन दशाओं में उसकी आकृतियाँ वक्राकार ही क्यों होती हैं? सुरज और चंद्रमा वृत्ताकार क्यों दिखाई पड़ते हैं और इनके ग्रहण के समय भी वक्राकार एवं वृत्तखण्ड निर्मित छाया/आकृतियाँ क्यों बनती हैं? तारे क्यों बने हैं? तारे रात में ही क्यों चमकते हैं, दिन में कहाँ चले जाते हैं? वास्तव में इन प्रश्नों तथा अंतरिक्ष एवं खगोलीय पिण्डों की वैज्ञानिक सच्चाइयाँ आज से मात्र पाँच-छह शताब्दी पूर्व ही आनी शुरू हुई, जब वैज्ञानिकों ने नये दृष्टिकोण से इन विषयों का अध्ययन शुरू किया। इसके पूर्व विभिन्न किंवदन्तियों और आधारहीन तथ्यों के सहारे इनका उत्तर दिया जाता था।


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