पूर्व-मध्यकालीन मिथिला के विवाह-निर्धारण में ज्योतिष का महत्त्व

अबतक उपलब्ध पुरानी मैथिली के सबसे पुराने लेखक कविशेखराचार्य ज्योतिरीश्वर ठाकुर ने लगभग 1300 ई. में कविशिक्षाविषयक ग्रंथ ‘वर्णरत्नाकर' नाम से लिखा। (वर्णरत्नाकर, डॉ. सुनीति कुमार चाटुज्र्या (सं.), रॉयल एशियाटिक सोसाइटी, बंगाल, कलकत्ता, 1940)। यह ग्रंथ सांस्कृतिक महत्त्व के विषयों से भरपूर है। यदि यह कहा जाए कि इस ग्रंथ के बिना पूर्व-मध्यकालीन पूर्वोत्तर भारत एवं विशेषकर मिथिला की संस्कृति का अध्ययन नहीं हो सकता, तो अत्युक्ति नहीं होगी। इस ग्रंथ से कर्णाट्कालीन मिथिला का उन्नत सामाजिक जीवन भासमान हो उठता है। उस युग के प्रमुख राजवंश, जातियाँ, लोकरीति एवं परम्परा का यह अद्भुत आगार है। (डॉ. भुवनेश्वर प्रसाद गुरुमैता, ‘सप्तसिंधु', भाषा-विभाग, हरियाणा, चण्डीगढ़, वर्ष 22, अंक ३, मार्च, 1975 ई.)। संयोग से उस समय तक ई.)। संयोग से उस समय तक मिथिला दिल्ली सल्तनत द्वारा अविजित रहने के कारण अपनी सनातन संस्कृति से जुड़ी हुई थी। फलस्वरूप, विवाह-पद्धति में धर्मशास्त्रों को अनुपालन एवं ज्योतिष का प्रभुत्व स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता है। हिंदू-संस्कारों में विवाह को सबसे अधिक महत्त्व प्राप्त था। उस समय तक विवाह के आदर्श, उद्देश्य एवं कार्य स्थिर हो चुके थे। यह एक चिरमर्यादित संस्था बन गई थी। वर्णरत्नाकर में 'विवाहवर्णना' के अंतर्गत वैवाहिक विधि-विधानों का सारगर्भित चित्र मिलता है। गृहस्थ-जीवन के निर्वाह तथा पारिवारिक उन्नति के लिए वैवाहिक यज्ञ का अनुष्ठान आवश्यक था। वर-वधू को यह आशीर्वाद दिया जाता था कि वे धर्म का आचरण करते हुए संतान को उत्पन्न करें। विवाह के निर्धारक तत्त्वों में गोत्र, प्रवर, यौन और लग्न आवश्यक तत्त्व थे। ज्योतिरीश्वर के काल में ही गोत्र की समस्या के समाधान के लिए ‘पञ्जी-प्रबन्ध' का सूत्रपात किया गया था। इसी दृष्टि से वर और वधू के जन्मकाल की तिथि और मुहूर्त के मिलान पर भी बल दिया गया था। पाण्डित्य एवं प्रतिभा के धनी मिथिला क्षेत्र में दर्शनशास्त्र एवं ज्योतिष का भी बहुत प्रचलन था। यह स्वाभाविक ही था कि विवाह-पद्धति भी ज्योतिषशास्त्र से परिचालित हो। वर्णरत्नाकर में विवाह-वर्णन के प्रसंग में ज्योतिष की तकनीकी शब्दावली को उल्लिखित कर उसके वर्चस्व को स्थापित कर दिया है।



ज्योतिरीश्वर ने विवाह के निर्धारण में ज्योतिष के आधार पर लग्न-निर्धारण की वैज्ञानिक पद्धति बताई है, वह विवाह-समय के लिए पूर्व-मध्यकाल से ही बहुत उपयोगी सिद्ध हो रही है। लग्न-निर्धारण के लिए यथानिर्दिष्ट विषयों की गणना महत्त्वपूर्ण थी, पंद्रह तिथि (प्रतिपदा, द्वितीया आदि), सत्ताईस नक्षत्र (अश्विनी, भरणी आदि), सत्ताईस योग (विष्कभ, प्रीति, इत्यादि), सात वार (रवि, सोम आदि सात दिन), बारह राशि (मेष, वृष, आदि), आठ प्रहर, बत्तीस घड़ी (आठ प्रहर में बत्तीस घड़ी), बारह मुहूर्त (प्रत्येक मुहूर्त-पाँच दण्ड, अहोरात्र में साठ दण्ड और एक घंटा में ढाई दण्ड), पल (दण्ड का साठवाँ भाग), कला (पल का साठवाँ भाग), विकला (कला का साठवाँ भाग) । विवाह के लिए लग्नसमय को प्रमुख माना गया है : 


भार्या त्रिवर्गकरणं शुभशीलयुक्ता। शीलं शुभं भवति लग्नवशेन तस्याः ॥


विवाह में वर-कन्या के जन्मनक्षत्रों के मेलापक-विचारण को गणना कहते हैं। यह गणना इसलिए की जाती है कि चंद्रमा की स्थिति देखकर वर-कन्या के मानसिक सम्बन्ध का पता चल सके। चन्द्रमा जीवन- मात्र के मानस-अंग का अधिष्ठाता कहा गया है। चंद्रमा के नक्षत्र मिहिनत होने के कारण नक्षत्रों के आधार पर ही मनुष्य के मानसिक सम्बन्ध आश्रित हैं। अतएव, विवाह आदि में वर-कन्या के जन्म-नक्षत्रों का संबंध देखना आवश्यक समझा गया है। लग्न के शुभत्व आवश्यक है कि वर और वधू की जन्म-राशि से आठवीं और बारहवीं राशि को छोड़कर अन्य राशि लग्न हो और उस लग्न से सात, आठ, बारह- इन तीन स्थानों में कोई भी ग्रह न हो तो लग्न से एक, पाँच, नौ, चार, दस शुभ ग्रह एवं तीन, छह, ग्यारह में पापग्रह हों, तो वह लग्न शुभ फल देनेवाला होता है।  


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