ससार को भारत का ज्योतिषशास्त्रीय अवदान

समस्त विश्व ने भारत से जो अगणित-अनगिनत अजस्र अनुदान पाए, उसमें ज्योतिष का स्थान अद्वितीय है। ज्योतिषशास्त्र वेदकालीन महर्षियों की अलौकिक प्रतिभा की देन है। भारतीय विद्याओं में इसका अनूठा स्थान है। मनुष्य की संरचना और उसकी प्रकृति का इससे गहरा सम्बन्ध है। इसके अंतर्गत पिण्ड और ब्रह्माण्ड, व्यष्टि और समष्टि के सम्बन्धों का अध्ययन समग्र रूप से किया जाता है। ग्रह, नक्षत्र, तारे, राशियाँ, मन्दाकिनियाँ, निहारिकाएँ एवं मनुष्य, प्राणी, वृक्ष, चट्टानें आदि विश्वब्रह्माण्डीय घटक प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से एक-दूसरे को प्रभावित-आकर्षित करते हैं। इन ग्रह-नक्षत्रों का मानव-जीवन पर सम्मिलित प्रभाव पड़ता है। वे कभी कष्ट दूर करते हैं, तो कभी कष्ट भी देते हैं। ये  तृत्त्व मनुष्य की सूक्ष्म संरचना एवं मनःसंस्थानों पर कार्य करते हैं और उसकी भावनाओं तथा मानसिक स्थितियों को अधिक प्रभावित करते हैं। ज्योतिर्विज्ञान के अध्ययन और उपयोग से ज्योतिषी को मानव-जीवन के सभी क्षेत्रों में गहरी अन्तर्दृष्टि प्राप्त हो जाती है।


संसार के प्रथम ग्रंथ ऋग्वेद में 'चक्र' शब्द आया है, जो राशिचक्र का द्योतक है। द्वादशारं नहि तज्जराय (ऋक्, 1.164.11) मंत्र में द्वादशारम् शब्द 12 राशियों का बोधक है। प्रकरणगत विशेषताओं के ऊपर ध्यान देने से इस मंत्र में स्पष्टतया द्वादश राशियों का निरूपण देखा जा सकता है। इसके अलावा ऋग्वेद के अन्य स्थलों एवं शतपथब्राह्मण आदि ग्रन्थों के अध्ययन से पता चलता है कि आज से-कम-से-कम 28,000 वर्ष पहले भारतीयों ने खगोल और ज्योतिषशास्त्र का मन्थन किया था। वे आकाश में चमकते हुए नक्षत्र-पुञ्ज, आकाशगंगा, निहारिका आदि के नाम-रूप-रंग-आकृति आदि से पूर्णतया परिचित थे।



प्रारम्भिक काल में ज्योतिर्विज्ञान अध्यात्मविज्ञान की ही एक शाखा थी। इसे एक पवित्र विद्या माना जाता था, जिसका स्वरूप स्पष्टतः धर्मविज्ञान पर आधारित था। अपने इसी रूप में इसने चाल्डियन एवं मिस्री धर्मों तथा प्राचीन भारत, चीन एवं पश्चिमी यूरोप में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उस समय इसकी विश्वसनीयता असंदिग्ध मानी जाती थी और उसका प्रचार-प्रसार विश्व के समस्त भागों पर था, परन्तु मध्यकाल में ज्योतिर्विज्ञान पर अनेक आघात हुए और अल्पज्ञ तथा स्वार्थी लोगों के हाथों पहुँच जाने पर इस विद्या की अवनति हुई। ज्योतिष की मूलभूत तत्त्वमीमांसा एवं उसके आध्यात्मिक तत्त्वदर्शन से उस समय के ज्योतिषी बहुत अंशों में अनभिज्ञ थे। उन्होंने ज्योतिर्विद्या के केवल उन सिद्धान्तों पर अमल किया, जिसका मेल नये यान्त्रिक भौतिकविज्ञान के तथ्यों से बैठता था। उस समय केवल वही सिद्धान्त मान्य रहे जो दृश्य जगत् की बाह्य भौतिक घटनाओं एवं तथ्यों पर आधारित थे। जोहान्स केपलर (15711630) के ज्योतिषशास्त्र को ग्रैहों की चाल पर आधारित मानने के कारण भी ज्योतिषविज्ञान की दुर्गति हुई।


वास्तव में इस विद्या के सिद्धान्तों का सुदृढ़ आधार आधिभौतिक एवं आध्यात्मिक है। इसे भौतिक यंत्रवाद और मात्र ग्रहों-तारों-राशियों एवं भावों का निर्धारण करनेवाले एवं व्यवस्था-क्रम दर्शनवाले खगोलीयविज्ञान के आधार पर नहीं समझा जा सकता। इस शास्त्र के आविष्कर्ता भारतीय महर्षि रहे हैं, जो अलौकिक आध्यात्मिक शक्तियों से सम्पन्न थे। योगविज्ञान, जो कि भारतीय आचार्यों की विभूति माना जाता है, इसका पृष्ठाधार है। यहाँ ऋषियों ने योगाभ्यास द्वारा अपनी सूक्ष्म प्रज्ञा से शरीर के भीतर ही सौरमण्डल के दर्शन किए और अपना निरीक्षण कर आकाशीय सौर मण्डल की व्यवस्था की। अंकविद्या, जो इस शास्त्र का प्राण है, का आरम्भ भी भारत में ही हुआ। ‘मध्यकालीन भारतीय संस्कृति' नामक पुस्तक में डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा (1863-1947) ने लिखा है कि भारत ने अन्य देशवासियों को जो अनेक बातें सिखायीं, उनमें सर्वाधिक महत्त्व अंकविद्या का है। संसारभर में गणित, ज्योतिष, विज्ञान आदि की आज जो उन्नति पाईजाती है, उसका मूल कारण वर्तमान अंकक्रम है, जिसमें 1 से 9 तक के अंक और शून्य- इन 10 चिह्नों से अंक-विद्या का सारा काम चल रहा है। यह क्रम भारतवासियों ने ही निकाला और उसे सारे संसार ने अपनाया।  


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