सूक्ष्म से असीम की ओर

 ज्योतिष का भी प्रादुर्भाव हो गया था। धीरे-धीरे इसका विकास होता रहा। ज्योतिष को मूल रूप से दो भागों में विभक्त कर सकते हैं- कालगणना व फलितज्योतिष। फलितज्योतिष पर भिन्न-भिन्न विचार हो सकते हैं, परन्तु कालगणनाओं में अन्तर नहीं आ सकता। कालगणनाओं व फलितज्योतिष का संयुक्त रूप राजा पृथु, ऋषभदेवजी, भगवान् राम व कृष्ण, बुद्ध एवं महावीर आदि की कथाओं में यह स्पष्ट रूप से वर्णित है।


सौर वर्ष


कालगणनाओं का मूलाधार सूर्य व पृथिवी के मध्य सापेक्ष गति को माना गया है। भारतीय ज्योतिष में सूर्य को घूमता व वर्तमान विज्ञान पृथिवी को सूर्य के चारों ओर घूमना बतलाते हैं, परन्तु सापेक्ष गणना के कारण कालगणना में अन्तर नहीं आता। भारतीय ज्योतिषी आज भी सूर्य की स्थिति की गणना दर्शात है। 


सौर वर्ष की गणना सूर्य के जिस राशि, अंश, घड़ी, पल व प्रतिफल से प्रारम्भ करके की जाती है, ठीक अगली उसी स्थिति में आने के बीच के अन्तराल को सौर वर्ष कहते हैं। सौर वर्ष को लेकर पाश्चात्य वैज्ञानिकों व भारतीय ज्योतिषियों की गणना में कोई अन्तर नहीं है जो लगभग 365.1/4 दिन का होता है। वर्षफल बनाने में भी सूर्य के जन्म की स्थिति को आधार बनाया जाता है जो लगभग उसी तारीख को आता है। कभी-कभी लीप वर्ष के कारण अन्तर अवश्य आ जाता है।


सौर मासव चन्द्रमास


सौर मास एक संक्रान्ति से अगली संक्रान्ति के मध्यकाल को कहते हैं। सूर्य जब एक राशि को छोड़कर दूसरी राशि में प्रवेश करता है, उसे संक्रान्ति कहते हैं। इस तरह एक सौर वर्ष में बारह संक्रान्तियाँ आती हैं व बारह ही सौर मास होते हैं। मकर संक्रान्ति का विशेष महत्त्व इसलिए है कि इस दिन से सूर्य उत्तरायण हो जाता है, अर्थात् उत्तर की ओर बढ़ना प्रारम्भ करता है। भीष्म पितामह बाण शैय्या पर पड़े हुए भी सूर्य के उत्तरायण प्रवेश की प्रतीक्षा करते रहे। उन्हें अपने पिता से इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त था। मकर संक्रान्ति सर्दियों के अंत का भी सूचक है, अतः इसे अलगअलग तरीकों से पूरे देश में मनाया जाता है। इस दिन दान-पुण्य किये जाते हैं तथा तीर्थों का सेवन किया जाता है।


चन्द्रमास अमावस्या से अमावस्या तक, पूर्णिमा से पूर्णिमा तक या कहींकहीं अष्टमी से अगली उसी पक्ष की अष्टमी तक माना जाता है। चन्द्रमा पृथिवी की परिक्रमा करते हुए अपनी धुरी पर घूर्णन गति करता है, इसी से उसकी कला घटती-बढ़ती है, पूर्णिमा को पूर्णकला व अमावस्या को न्यूनतम कला माना जाता है। इसलिए चन्द्रमास को दो पक्षों में बाँटा गया है- शुक्ल पक्ष व कृष्ण पक्ष।


चन्द्रमा की घूर्णन गति व कलाओं की गणना इस तरह से की गई है कि पूर्णिमा से । अगली पूर्णिमा के बीच के काल को 30 भागों में बाँटा गया है, परन्तु यह सदैव समान नहीं रहता, इसलिए तिथियाँ कभी बढ़ जाती हैं तो कभी क्षय हो जाती हैं। फिर भी एक तिथि वैशाख शुक्ल तृतीया (अक्षय तृतीया) का कभी क्षय नहीं होता। इस दिन सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा की उत्पत्ति मानी जाती है, फलस्वरूप इस दिन कोई भी शुभ कार्य किया जा सकता है। यह दिन मुहूर्तों का सम्राट् है।


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