विजयी सभ्यता का ज्योतिषरूपी दस्तावेज : सामुद्रिकशास्त्र और हस्तविज्ञान

वेद ज्योतिष-गणना के प्रथम दस्तावेज हैं जो ज्ञान के आगार हैं। भारतीय ज्योतिष वेदों से ही उत्पन्न है। समय- काल परिवर्तन के साथ भारत के ज्ञान- विज्ञान ने अन्य देशों में भी अपने पाँव पसारे। सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने समस्त प्राणियों को भिन्न-भिन्न आकृतियों, विविध आकारप्रकार प्रदान किये। व्यक्तियों की आकृति एवं अंग-प्रत्यंग से व्यक्तित्व एवं भावी शुभाशुभ तत्त्वों को लक्षित करने की अंगविद्या प्राचीन धर्मशास्त्रों एवं ज्योतिषविज्ञान में थी।


यूरोप के महान् बुद्धिजीवी और राजनीति विशारद वोल्टेयर ने भारत को धर्म के सबसे प्राचीन और विशुद्ध रूप की वासभूमि व विश्व-सभ्यता की स्थली माना। उन्होंने कहा कि हम भारत के ऋणी हैं, क्योंकि हमारी प्रत्येक चीज- खगोलशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, अध्यात्म, तत्त्वमीमांसा आदि गंगा के तट से हमारे यहाँ आई है।



कई धर्मग्रन्थों में हाथ पर अंकित चिह्नों, रेखाओं को अमिट व शाश्वत माना गया है। सनातन-धर्म में हस्त-चिह्नों व रेखाओं के संबंध में कहा गया है कि ये लकीरें इंसान को कर्म के प्रति सजग व सावधान करती हैं। भारत में सामुद्रिकशास्त्र की विद्या बहुत प्राचीन है। इसमें हस्तरेखाओं व अंगों को देखकर सभी शुभाशुभ फल जाने जाते हैं। हमारे यहाँ प्रातःकाल हथेलियों का दर्शन पुण्यदायक, मंगलप्रद तथा तीर्थ-दर्शन के समान माना गया है


कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती।


करमूले तु गोविन्दः प्रभाते करदर्शनम्॥


इस सम्बन्ध में अरस्तु का कथन है कि त्रेतायुग की घटनाओं का चरित्र-चित्रण वाल्मीकीयरामायण से ज्ञात होता है। वाल्मीकीयरामायण के सुन्दरकाण्ड के 35वें सर्ग में बताया गया है कि हनुमानजी ने प्रभु राम के हस्तलक्षणों का विवरण देकर ही माता सीता को रामदूत होने का प्रमाण दिया था। श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड (दोहा 67) में नारद जी ने हिमालय और मैना को पार्वती माता की हस्तरेखा देखकर बताया था कि उनको एक योगी, जटाधारी वेशभूषा वाला ही पति मिलेगा ।


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