विष्णुधर्मोत्तरपुराण में संहिताज्योतिष

विष्णुधर्मोत्तरपुराण में केवल कथा- आख्यान, मिथक और वीरोचित गाथाएँ ही नहीं मिलतीं, बल्कि यह मानवशास्त्रीय सामग्री को भी संजोये हुए है। इसमें प्रमुखता से पौराणिक भूगोल, खगोलीय गणित, सिद्धान्तज्योतिष, कालादि के अवयव, आकाशस्थ ग्रह-नक्षत्र-तारों के बारे में स्पष्टीकरण आदि भी उपलब्ध होता है। इसमें ज्योतिषशास्त्र के उद्भव के संबंध में रोचक कथा भृगु और ब्रह्मा के बीच संवाद रूप में कही गई है। यह ज्योतिष पर भार्गवीय प्रभाव का द्योतक है। इसमें ज्योतिषशास्त्र को 24 लाख श्लोकों के प्रमाण का कहा गया है। वह वरुण यज्ञ में महादेव के शाप से ज्वाला को भेदकर निकला था। इसमें ग्रहों और नक्षत्रों के समागम से इस शास्त्र का प्रारम्भ किया गया है, इन श्लोकों में नक्षत्रों, चंद्रमा और धूमकेतुओं के परिणाम, ग्रहों के संचार से होनेवाले प्रभाव, सुभिक्ष-दुर्भिक्ष आदि का वर्णन किया गया है। अगस्त्य के उदय, सप्तर्षियों के फल आदि को भी कहा गया है। इस पुराण में नक्षत्रों की गणना दो तरह से आई है- कृतिका से और अश्विनी से। नक्षत्रदेवताओं की सूची कृतिका से है (1.83.13) जो विष्णुपुराण के क्रम में है। इस काल के पुराणों की यह विशेषता है कि उनमें ज्योतिष, यात्रादि वर्णन प्रचुरता लिए होगा। विष्णुधर्मोत्तरपुराण में ज्योतिष की जानकारियाँ अनेक अध्यायों में उपलब्ध हैं। मुहूर्तों का उल्लेखक्रम भी दिवस व रात्रि के रूप में आया है। वज्र के प्रश्न पर मार्कण्डेय का कथन है कि दिन-रात के प्रारम्भ में आधा मुहूर्त और उनके बीच सर्वदा अभिजित् रहता है



दिनरात्र्योस्समारम्भे ह्यधं भवति पार्थिव॥


तयोर्मध्ये च सततमभिजिच्चाभिधीयते। तयोद्वित्वान्मया त्रिंशन्मुहूर्ता विहितास्तव॥


नक्षत्रैर्दैवतैस्तेषां देवताः परिकीर्तिताः। केवलं क्रमहानिश्च क्रमस्तेषां निबोध मे॥


रौद्रस्सार्पस्तथा मैत्रः पैत्रो वासव एव च। आप्यो वैश्वस्तथा राजन्केश्वरः शक्रदैवतः॥


ऐन्द्राग्नेयौ नैर्ऋतस्तु वारुणश्च महीपते। आर्यम्णस्तु तथा भोग्यो मुहूर्तास्तु दिवाचराः॥


विष्णुधर्मोत्तरपुराण में रात्रि के मुहूर्त के ये ही नाम हैं


रौद्राऽजदेवोहिर्बुध्याः पौष्णश्चाश्विन एव च। याम्योऽग्निदैवतश्चैव ब्राह्मस्सौम्यस्तथैव च।


आदित्यो जीवदैवत्यो वैष्णवः सूर्यदैवतः। त्वाष्ट्रश्चैवाथ वायव्यो मुहूर्ता रात्रिचारिणः॥


अह्नः पञ्चदशो भागो रात्रेश्च यदुनन्दन। मुहूर्तसञ्ज्ञः कथितो मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः॥


प्रथमखण्ड, 84.66-73


इसी प्रकार दिन-रात में 12 लग्न की धारणा दी गई है और कहा गया है कि जिस राशि में सूर्य का उदय होता है, वही लग्न होता है। बारह राशियों के अनुसार बारह लग्न होते हैं। इनके स्वामी क्रमशः मंगल, शुक्र, बुध, चंद्रमा, सूर्य, बुध, शुक्र, मंगल, गुरु, शनि, गुरु हैं। लग्न का आधा होरा होता है और यह विषम राशियों में होता है, लग्न का आधा द्रेष्काण होता है। इस प्रकार लग्न, होराद्रेष्काण, नवांश, द्वादशांश, त्रिंशांश, षष्ट्यंश- ये छह भेद बताए गए हैं। (प्रथम खण्ड, 84.1-14)।


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