आखिर वह कहाँ गलत थी?

लच ओवर होनेवाला था और पूनम चाय लेकर अभी तक नहीं आई थी। सारी अध्यापिकाएँ खीज़ रही थीं कि आने दो उसे, आज उसे समझाना ही पड़ेगा कि या तो तुम काम समय पर करो नहीं तो छुट्टी लेकर घर बैठो। हद हो गई लेटलतीफी की। उफ़! लगता है आज फिर बिना चाय पिए ही रह जायेंगे। तभी एक महिला हाथ में चाय की ट्रे लिए हुए दाखिल हुई और खनकती आवाज़ में बोली- क्या स्टाफ रूम यही है? हम सभी ने एकसाथ हाँ में सिर हिला दिया। वैसे तो हम सब बहुत ही गुस्से में थे, पर सामने अपरिचित महिला को देखकर शान्त हो गए। मैंने इशारा करते हुए कहा- चाय वहाँ मेज पर रख दो और यह बताओ पूनम कहाँ है?



वह बोली- कौन पूनम?


ओह! कोई नहीं। मैं समझ गई कि यह यहाँ की आया पूनम को नहीं जानती हैं। फिर उत्सुकतावश मैंने उससे पूछा कि आप कौन हैं? वह चहकती आवाज में बोली- मैं कान्ता। आज से ही आप सबकी सेवा करने के लिए आई हूँ।


वह चाय रखकर चली गयी। लंच ओवर हो चुका था, इसलिए चाय पीना सम्भव नहीं था, सो बिना चाय पिए ही अनमने मन से मैं अपनी कक्षा में आ गयी। मैं क्या, सभी शिक्षिकाएँ क्लास में जम्हाई ले रही थीं, क्योंकि रोज लंच में चाय पीने की आदत जो थी।


चाय से कहीं ज्यादा मुझे पूनम की कमी खल रही थी। आशंका यह हो रही थी कि कहीं पूनम को नौकरी से निकाल तो नहीं दिया गया। जगह तो खाली नहीं थी, फिर इस नयी आया को कैसे रख लिया गया? फिर पूनम तो इस विद्यालय में कितने समय से काम कर रही है, उसे यहाँ की हर छोटी-बड़ी बात पता थी। कितनी वफ़ादारी से काम करती थी। किसे कब क्या देना है, सबका ध्यान रखती थी। देखो न इस नयी के चक्कर में आज बिना चाय पिए ही रह गये। पूनम इधर जबसे बीमार पड़ गई, तब से कुछ काम में धीमी पड़ गई थी। उम्र भी तो काम करने की नहीं रही, लेकिन बेचारी क्या करे? काम नहीं करेगी तो खाएगी क्या? इस स्कूल के अलावा कोई सहारा भी तो नहीं उसका। यदि यह सहारा (विद्यालय) छूट गया तो कहाँ जायेगी बेचारी? मैं काफी देर से इसी उधेड़बुन में थी तब तक देखा पूनम आँखों में आँसू भरे सामने खड़ी है।


मैने शीघ्रता से पूछा- क्या हुआ पूनम? आज तुम सुबह से दिखी ही नहीं।


मैं जा रही हूँ मैडम, मेरी सेवा यहीं तक थी। कहते-कहते वह रो पड़ी।


मैं उससे क्या कहूँ, कुछ समझ नहीं पा रही थी पर मैं उसके लिए दिल से दुःखी थी। सांत्वना में यही कह सकी कि कल तुम घर पर आना, तुम्हारी कुछ मदद ज़रूर करूंगी। पूनम को इस तरह अचानक नौकरी से निकाल दिए जाने पर हम सभी हतप्रभ थे, पर क्या कर सकते थे। घर पहुँचकर भी पूनम बराबर याद आती रही।


अगले दिन जब मैं विद्यालय पहुँची, तो साफ़-सफ़ाई देखकर दंग रह गयी। इतना साफ़ और व्यवस्थित विद्यालय पहले कभी नहीं दिखा तो सोचा शायद पूनम को इसीलिए हटा दिया गया कि अब वह ज्यादा काम करने में असमर्थ थी और कान्ता नयी उम्र की है, काम करने में भी काफी तेज है।


अब कान्ता पूरा दिन विद्यालय के अन्दर काम करती और उसका पति बाहर का सारा काम संभाल लेता, उसके छोटे-से बेटे ने कुछ दिन परेशान किया, अब वह भी लॉन में झूलों पर खेलता रहता। बाढ़ में उसकी झोपड़ी व सारा सामान बह गया था, दाने-दाने के लिए मुहताज थी बेचारी, लेकिन अब दिन अच्छे कटने लगे थे। लंच के बाद का मेरा पीरिएड फ्री रहता था। कान्ता थोड़ा समय निकालकर उस समय मेरे पास जरूर आती, थोड़ी बातचीत करके चली जाती। वह अक्सर कहती आप हमें सबसे अच्छी लगती हैं, मुझे आपसे बातें करना अच्छा लगता है। मुझे भी उसकी सीधी भोली-भाली बातें अच्छी ही लगती थीं। सजने-सँवरने की तो उसमें गज़ब की ललक थी, पर पैसों के अभाव में वह उसे पूरा नहीं कर पाती थी। सभी टीचरों को वह ध्यान से निहारती और मुझसे उसी की चर्चा करती कि आज किसकी साड़ी सबसे सुन्दर है, किसकी ज्वेलरी, किसकी सैंडिल और किसकी घड़ी। एक-एक का बखान करती कि कौन-सी मैडम कितनी सुन्दर लगती हैं, यह उसकी रोज की बातें थीं। एक दिन मैने कहा कान्ता तुम भी बहुत सुन्दर हो, बस रहन-सहन का फ़र्क है। जब सजोगी तो बहुत सुन्दर दिखोगी। वह कुछ लजाते हुए बोली- हाँ सरजी भी यही कह रहे थे।


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