भारतीय कला-मीमांसक

आनन्द केन्टिश कुमारस्वामी


(22 अगस्त, 1877-09 सितम्बर 1947)



भारतीय कला के मर्मज्ञों में श्री आनन्द केन्टिश कुमारस्वामी (‘आनन्द कुमारस्वामी' के नाम से सुविख्यात) का नाम पूरे विश्व में अत्यन्त सम्मानपूर्वक लिया जाता है। आनन्द कुमारस्वामी न केवल चित्रकला, वरन् मूर्तिकला, इस्लामी कला, धर्म, दर्शन, पराविद्या, भारतीय साहित्य, संगीत, विज्ञान, आदि अनेक क्षेत्रों के प्रकाण्ड पण्डित थे। कला के क्षेत्र में उनकी देन अत्यन्त मूल्यवान् है। भारतीय वास्तुकला, मूर्तिशिल्प तथा चित्रकला की कोई ऐसी विधा नहीं है जो उनकी दृष्टि से अछूती रह गई हो। कलाचार्य ई.बी. हैवल (1861-1934) के पश्चात् आनन्द कुमारस्वामी दूसरे विद्वान् थे जिन्होंने भारतीय कला के सन्दर्भ में फैले हुए भ्रमजाल को तोड़ दिया। उनका विचार था कि भारतीय मूर्तिशिल्प जो अपनी विशिष्टता और विविधता से पाश्चात्य देशों के निवासियों को भ्रमित करता रहा है, अब तक सही ढंग से नहीं समझा गया। कुमारस्वामी ने उसी पृष्ठभूमि को समझाते हुए उसकी विशिष्टताओं और लाक्षणिकताओं को स्पष्ट किया। 


आनन्द कुमारस्वामी का जन्म कोलम्बो (श्रीलंका) में हुआ था। इनके पिता सर मुतुकुमार स्वामी ने 1863 में इंग्लैण्ड जाकर बैरिस्टरी पास की थी। वहाँ उन्होंने एलिजाबेथ क्ले नामक अंग्रेजु महिला से विवाह किया। विवाह के चार वर्ष बाद ही, जब कुमार स्वामी केवल दो वर्ष के थे, तभी इनके पिता का देहान्त हो गया। आनन्द कुमारस्वामी इन्हीं दोनों की संतान थे। अंग्रेज़ माता उनको लेकर लन्दन चली गई और वहीं उनका पालन-पोषण किया।


सन् 1900 में उन्होंने लन्दन विश्वविद्यालय से भूविज्ञान तथा वनस्पतिशास्त्र लेकर प्रथम श्रेणी में बी. एससी. पास किया और यूनिवर्सिटी कॉलेज, लन्दन में कुछ काल फेलो रहकर वे श्रीलंका के मिनरालॉजिकल सर्वे के निदेशक नियुक्त हुए। तीन वर्ष श्रीलंका में रहकर उन्होंने ‘सीलोन सोशल रिफॉर्मेशन सोसाइटी का गठन किया और यूनिवर्सिटी आन्दोलन का नेतृत्व किया। श्रीलंका के मिनरालॉजिकल सर्वे के निदेशक पद पर रहते हुए उन्होंने भारत तथा दक्षिण-पूर्वी एशिया का भ्रमण किया। उसी दौरान उनकी अभिरुचि ललितकला की ओर जाग्रत् हुई और उन्होंने प्राचीन मूर्तियों और चित्रों का गहन अध्ययन किया। उनका यह अध्ययन इतना गहरा था कि किसी को गुमान तक नहीं होता कि उनका संबंध कभी विज्ञान से भी हो सकता था। प्राच्यविद्या के सभी क्षेत्रों में उन्होंने अपनी मौलिकता का परिचय दिया। उनकी एक विशिष्ट देन है- कला के सन्दर्भ में उपनिषदों के भावतत्त्व का निरूपण। 1910 में उन्होंने कलकत्ते की इण्डियन सोसाइटी ऑफ ओरियंटल आर्ट के तत्वावधान में मुगल और राजपूत-चित्रकला पर जो भाषण दिया, वह उनके असाधारण ज्ञान का परिचायक था। 1911 में इंग्लैण्ड जाकर उन्होंने अन्य विद्वानों के साथ इण्डिया सोसाइटी की नींव डाली जो आज ‘रॉयल इण्ड्यिा , पाकिस्तान एण्ड सीलोन सोसाइटी' के नाम से विख्यात है। 1917 में वे बोस्टन के ललितकला संग्रहालय के भारतीय विभाग के संग्रहालयाध्यक्ष नियुक्त हुए और 1947 में मृत्युपर्यंत उस पद रहे। 1920 में उन्होंने विश्वभ्रमण किया और अगले साल श्रीलंका में भारतीय तथा प्राचीन सिंहली कला पर व्याख्यान दिए। 1924 में न्यूयॉर्क में इण्डियन कल्चर सेंटर की नींव डाली जिसके वे पहले अध्यक्ष भी हुए। अमेरिका में उसके बाद उनके व्याख्यानों की परंपरा बन गई और 1938 में वाशिंगटन की संस्था 'नेशनल कमिटी फॉर इण्डियाज़ फ्रीडम' के अध्यक्ष बने।


सन् 1930 से उन्होंने दर्शन का विशेषाध्ययन किया और सन् 1933 में उन्होंने वेदों के अध्ययन स्वरूप ‘ए न्यू एप्रोच वेदाज : ऐन एस्से इन ट्रांसलेशन एण्ड एक्सिजेसिस' प्रकाशित करते रहे। पर कुमारस्वामी का संबंध जीवन के अंत तक कला से बना रहा और वे ललितकलाओं पर अपने विचार दार्शनिक स्तर से प्रकाशित करते रहे। उन्होंने अपने ग्रन्थों द्वारा हमें भारतीय कला के स्वरूप, आदर्श और सिद्धान्तों से परिचित कराया। उनके कुछ प्रमुख कला-ग्रंथ इस प्रकार हैं : ‘द एम्स ऑफ़ इण्डियन आर्ट' (1908), 'आर्ट एण्ड स्वदेशी' (1910), ‘आर्ट एण्ड क्राफ्ट्स ऑफ़ इण्डिया एण्ड सीलोन' (1913), 'विश्वकर्मा : एक्जाम्पल ऑफ़ इण्डियन आर्किटेकर, स्कल्पचर, पेंटिंग, हैण्डिकाफ्ट' (1914), ‘इंट्रोडक्शन टु इण्डियन आर्ट' (1923), 'हिस्ट्री ऑफ़ इण्डियन एण्ड इण्डोनेशियन आर्ट' (1927), 'अर्ली इण्डियन आर्किटेक्वर : सिटीज़ एण्ड सिटी गेट्स' (1930), ‘ह्वाई एग्जिविट वर्ल्स ऑफ़ आर्ट (1934), ‘एलिमेंट्स ऑफ़ बुद्धिस्ट आइकोनोग्राफ़ी' (1937), 'द ट्रेडिशनल व्यू ऑफ़ आर्ट' (1946), 'मिथ्स ऑफ़ हिंदूज एण्ड बुद्धिस्ट', 'बुद्ध एण्ड द गॉस्पेल ऑफ बुद्धिज्म', 'द डांस ऑफ शिव', ' 'ए न्यू एप्रोच टु वेदाज', 'लिविंग थॉट्स ऑफ गौतमादि बुद्ध', इत्यादि। बहुभाषाविद् कुमारस्वामी ने अनेक कला-ग्रंथ फ्रांसीसी-भाषा में भी लिखे। भारतीय कला-ग्रंथों की बिब्लियोग्राफी भी सर्वप्रथम उन्होंने ही बनाई, जो 1924 में बोस्टन से प्रकाशित हुई थी।


सत्तर वर्ष की अवस्था में अमेरिका में उनका निधन हुआ। मृत्यु के बाद उनकी कृति 'लिविंग थॉट्स ऑफ गौतम दि बुद्ध' प्रकाशित हुई।


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