भारतीय कला-सम्पदा के लुटेटे अंग्रेज

गत दो हजार वर्षों की अवधि में त दो हजार वर्षों की अवधि में भारत पर सैकड़ों विदेशी हमले हुए और देश को आठ शताब्दियों तक पराधीनता का दंश झेलना पड़ा। लगभग छः शताब्दियों के इस्लामी शासनकाल में आक्रांताओं द्वारा भारत की धन-सम्पदा की बेतहाशा लूट-खसोट हुई। मुसलमान शासक और आक्रमणकारी धन के भूखे थे और उनके लिए पत्थरों और दीवारों पर उत्कीर्ण कलाकृतियों और मूर्तियों का मूल्य उनको तोड़कर मस्जिदों की सीढ़ियों पर लगाने और ‘काफिरों' को लज्जित करने के सिवा कुछ और न था। दूसरी ओर व्यापारी के वेश में भारत आए अंग्रेज़ और फ्रांसीसी दुनियाभर के देशों से सुन्दर कला-सम्पदा को बटोरकर उसे लन्दन और पेरिस के संग्रहालयों में प्रदर्शित करना अपना अधिकार समझते थे।



ऐसा नहीं था कि ब्रिटेन के संग्रहालयों को सजाने के लिए भारतीय कला-सम्पदा की लूट, अंग्रेजों का धन के लिए लालच कहा जा सकता है। बल्कि 18वीं शताब्दी के अन्त से ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकारियों के सिर पर पुरानी भारतीय मूर्तियों, कलाकृतियों, चित्रों और पाण्डुलिपियों को बटोरने का एक जुनून सवार था। साथ ही वे भारतीय इतिहास और संस्कृति का विदेशी संस्कृति के साथ तुलनात्मक अध्ययन भी कर रहे थे। भारत पर दो शताब्दियों तक शासन के दौरान उन्होंने भारत की असंख्य अनमोल प्रतिमाओं, पुरातात्त्विक धरोहरों, कीमती कलाकृतियों, आभूषणों, पाण्डुलिपियों, आदि को संरक्षित करने के बहाने इंग्लैण्ड के तमाम संग्रहालयों में भर दिया।


जबकि हमें बताया जाता है कि यूरोपीयों ने भारत के मन्दिरों, महलों और अन्य प्राचीन स्मारकों को कभी कोई क्षति नहीं पहुँचाई, उलटे ‘एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल', 'आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इण्डिया' और 'सर्वे ऑफ़ इण्डिया' -जैसी संस्थाओं की स्थापना कर- के भारत की पुरातात्त्विक वस्तुओं के संरक्षण का कार्य किया, जबकि गहराई में जाने पर सत्य इसके ठीक विपरीत दिखाई पड़ता है।


वैसे तो 19वीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशक से ही अनेक ब्रिटिश पुरातत्त्ववेत्ता भारत के भिन्न-भिन्न स्थानों पर पुरातात्त्विक अवशेषों की खोज कर रहे थे, लेकिन दिसम्बर, 1861 में सर अलेक्जेंडर कनिंघम (1814-1893) के नेतृत्व में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण की स्थापना के बाद संगठित और व्यवस्थित तरीके से भारतीय कला-सम्पदा की लूट प्रारम्भ हुई। कनिंघम के समय में भारत के दूर-दराज क्षेत्रों में पुरातात्त्विक अवशेषों की खोज प्रारम्भ हुई। राजकीय संरक्षण में यूरोपीय प्राच्यविदों, कलापारखियों और पुरातत्त्ववेत्ताओं के अनेक खोजी-दल भेजे गए और विशाल मात्रा में कलाकृतियाँ एकत्र की गयीं। उनमें से नायाब कलाकृतियों को संरक्षित करने के बहाने उन्होंने लन्दन भेजने का प्रयास किया। इस तरह हज़ारों मूर्तियाँ, सिक्के, मुहरें, पेंटिंग्स, पाण्डुलिपियाँ, किताबें, बरतन, तलवारें, आभूषण, हीरे-जवाहरात, आदि विदेशी संग्रहालयों में पहुँचा दिए गये।


उल्लेखनीय है कि सन् 1904 से पहले भारत में कोई संग्रहालय न था। 1904 में पहली बार सर जॉन मार्शल (18761958) ने सारनाथ संग्रहालय की स्थापना की और तभी से यह प्रयास शुरू हुआ कि प्राचीन स्थलों से प्राप्त किए गए पुरावशेषों को उन खण्डहरों के निकट सम्पर्क में रखा जाए, जिससे वे सम्बन्धित हैं, ताकि उनके स्वाभाविक वातावरण में उनका अध्ययन किया जा सके और स्थानान्तरित हो जाने के कारण उन पर से ध्यान हट नहीं जाये। लेकिन तब तक अंग्रेज़ अनेक महत्त्वपूर्ण कलाकृतियों को अपने देश ले जाने में सफल हो गये।


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