भारतीय वैभव की

भारतीय इतिहास में शिल्प, वास्तु, संगीत एवं मूर्तिकला का प्रारम्भिक प्रयास हड़प्पा प्रारम्भिक प्रयास हड़प्पा संस्कृति में हुआ। भारतीय मूर्तिकला का जन्म सिंधु-सभ्यता के काल से ही अवतरित माना गया है। सैंधव कला के अन्तर्गत प्रस्तर, धातु एवं मृण्मूर्तियों का उल्लेख मिलता है।


प्रस्तर-मूर्तियाँ



मोहनजोदड़ों से एक दर्जन तथा हड़प्पा से तीन प्रस्तर- मूर्तियाँ प्राप्त होने के प्रमाण इतिहास में मिलते हैं। मोहनजोदड़ों से प्राप्त पुरोहित की प्रस्तर-मूर्ति तिपतिया अलंकरणयुक्त शॉल ओढ़े हुए है। इतिहासकारों के अनुसार इस काल की प्राप्त अधिकांश पाषाण-मूर्तियाँ खण्डितावस्था में है। हड़प्पा से तीन मूर्तियाँ प्राप्त हुईं, उनमें एक मूर्ति नृत्यरत नवयुवक की मानी जाती है, उस मूर्ति के दोनों हाथ नृत्य मुद्रा में फैले हैं।


धातु-मूर्तियाँ


मोहनजोदड़ों से नर्तकी की कांस्य- मूर्ति अत्यन्त प्रसिद्ध है। कालीबंगा से प्राप्त तांबे की वृषभमूर्ति इतिहास में अद्वितीय मानी जाती है। इस काल में धातु-मूर्तियाँ लुप्त मोम की विधि (मधूच्छिष्ठ विधि) से बनाई जाती थी।


मृण्मूर्तियाँ



मृण्मूर्तियों का निर्माण ज्यादातर चिकोटी विधि से किया जाता था। इस काल की मानव-मूर्तियाँ ठोस होने के साक्ष्य मिलते हैं जबकि पशु-पक्षियों की मूर्तियाँ प्रायः खोखली हैं। मौर्यकाल की कलाओं का स्थान भारत की प्राचीनतम कलाओं में है। सिंधु घाटी की सभ्यता के पाए गए कलात्मक अवशेषों के पश्चात् अच्छे कलावशेष, इतिहासकारों को मौर्यकाल की कला से ही प्राप्त हुए हैं। इनमें मुख्यतः अशोककालीन है। जब से भारतीय स्थापत्यकला व मूर्तिकला में पत्थर का प्रयोग आरम्भ हुआ। इस काल की कला को दो भागों में बाँटा जा सकता है :


1. राजकीय मूर्तिकला


2. लोककला के अन्तर्गत मूर्तिकला


राजकीय मूर्तिकला


राजकीय मूर्तिकला के अन्तर्गत स्तम्भों पर उत्कीर्ण पशु-पक्षियों की मूर्तियाँ उत्कृष्टता का प्रतीक मानी जाती हैं। इतिहासकारों का मानना है कि इस काल की मूर्तिकला पर ईरानी प्रभाव झलकता है। स्मिथ के अनुसार सारनाथ-स्तम्भ में जिस प्रकार की कला का प्रदर्शन (पशुओं का चित्रण) है, विश्व में कहीं भी इतनी सुंदर कला का प्रदर्शन नहीं है।


लोककला



लोककला के अन्तर्गत पत्थर एवं मिट्टी की मूर्तियों के प्रमाण प्राप्त होते हैं जो उस समय की लोकसंस्कृति की गवाही देते हैं। पटना के दीदारगंज से चँवरधारिणी यक्षी की मूर्ति प्राप्त हुई है। जो मौर्यकालीन कला का उत्कृष्ट उदाहरण मानी जाती है। परखम से प्राप्त यक्ष की मूर्ति, जिसे 'मणिभद्र' भी कहा गया है, विदिशा से प्राप्त यक्ष एवं यक्षी की मूर्ति, आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। मौर्यकालीन मिट्टी की मूर्तियाँ सभी स्थलों से लगभग प्रायः खण्डित रूप में प्राप्त हुई हैं। मूर्तिकला की दृष्टि से मौर्योत्तर काल को भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग कहा जाए तो गलत नहीं होगा। इस युग में भारत में तीन प्रकार की मूर्तिकला की शैलियाँ विकसित हुईं. 


1.गांधार-शैली


2. मथुरा-शैली


3. अमरावती-शैली 


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